परिशिष्ट
२८॥
जाय । पाठकों के सम्मुख देवजी की कौन-सी उक्ति रक्खें. और
कौन-सी न रक्खें, इसके चुनने में हमें बड़ी कठिनता है । देवजी
के प्रत्येक छंद-सागर में हमें रमणीयता की मृदुल अथच अटूट तरंगे
प्रवाहित होती हुई दृष्टिगत होती हैं, फिर भी यहाँ पर चार बंद
दिए जाते हैं। इन पर यहाँ विस्तार के साथ विचार करना
असंभव है, इसलिये हम उनको केवल उद्धृत कर देना ही
अलम् समझते हैं।
देवजी के वात्सल्य प्रेम का एक सजीव उदाहरण लीजिए-
(१) "छलकै छबीले मुख अलकै चुपरि लेउ,
बल के पकरि हिय-अक मै उकसि लै;
माखन-मलाई को कलेऊ न करयो है आज
और जान कौर, लाल, एक ही बिहसि लै ।
बलि गई, बलि ; चलि भैया की पकरि बाँहः
मया के परीकु रे कन्हैया, उर बसि लै;
मुरली बजाई मेरे हाथ लै लकुट ; माथे।
___ मुकुट सुधारि, कटि पीत-पट कसि लै ।"
उपर्युक्त छंद में माता यशोदा अपने सर्वस्व कृष्ण के प्रति किस
स्वाभाविक ढंग से प्रार्थना करती हैं, इस बात को मनुष्य-हृदय के सच्चे
पारखी कवि के अतिरिक्त और कौन कह सकता है । कपट-शून्य एवं
पवित्र पुत्र प्रेम के ऐसे चित्र साधारण ऋवियों की कृति नहीं हो सकते।
(२) देवजी के किसी-किसी छंद में संपूर्ण घटना का चित्र
खींचा गया है । मधुवन में सखियाँ राधिकाजी को राजपौरिया का
परिच्छद पहनाती हैं। इस रूप में वृषभाननंदिनी उस स्थान पर
भाती हैं, जहाँ कृष्णचंद्र गोपियों को दधि-दान देने पर विवश
कर रहे हैं। यह नकली राजपौरिया भौंहें तानकर डाटता हुना
कृष्ण से कहता है-चलिए, आपको महाराज कंस बुलाते हैं, यह
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२७३
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