परिशिष्ट 'देत चैत-चंद्रिका अचेत करि" इन शब्दों में प्रकट करते हैं, तो यह कथन साहित्यिक चोरी नहीं कहा जा सकता। विरहिणीमात्र को चैत्र मास की चाँदनी दुख देती है। इस सीधी बात को सूर, तुलसी, केशव, विहारी, मतिराम, देव तथा दास आदि सभी ने कहा है। यह भाव साहित्यिक सिक्के के रूप में साहित्य-बाज़ार में बे-रोक-टोक जारी है, इस पर विहारीलाल या अन्य किसी कवि की कोई छाप नहीं है। इसलिये ऐसे भाव-सादृश्य के सहारे किसी कवि पर साहित्यिक चोरी का दोष नहीं लगाया जा सकता। एक समालोचक महोदय ने देव की कविता में ऐसे बहुत-से साहित्यिक समान भाव एकत्रित करके उन पर अनुचित भावापहरण का दोष लगाया है। पर हमारी राय में ऐसे साहित्यिक सिको के व्यवहार से यदि कोई कवि चोर कहा जा सकता है, तो सूर, केशव, तुलसी, मतिराम सभी इसी अभियोग में अभियुक्त पाए जायेंगे। पूर्ववर्ती और परवर्ती कवि की कविता में भाव-साश्य रहते हुए भी कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि परवर्ती को वही भाव अपनेआप ही सूझा हो, उसने पूर्ववर्ती का भाव न देखा हो। बहुत-से ऐसे भाव हैं, जिनको शेक्सपियर ने प्रकट किया है और अंगरेज़ी से नितांत अपरिचित कई भारतवासी कवियों ने भी कहा है। ऐसी दशा में एक दूसरे के भाव देखने की संभा- वना कहाँ थी? कहने का तात्पर्य यह कि देवजी के कई भाव ऐसे भी हो सकते हैं, जो उनके पूर्ववर्ती कवियों ने लिखे अवश्य है। पर बहुत संभव है, देवजी को वे स्वयं सूझे हों । जो हो, देवी की कविता में उनके पूर्ववर्ती कवियों के भावों की मलकमात्र दिखला देने से उनके महत्व में कमी नहीं उपस्थित की जा सकती।
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