पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४ देव और विहारी मूतनता पैदा कर देते हैं ; पहले की अपेक्षा भाव की ग्मणीयता बिगड़ने नहीं पाती और कहीं-कहीं तो बढ़ भी जाती है। इस प्रकार के भावापहरण को संस्कृत एवं अँगरेजी के विद्वान् समा- लोचकों ने बुरा नहीं माना है, बरन् उसकी सराहना की है। साहित्य-संसार में कुछ भाव ऐसे प्रचलित हो गए हैं, जिनका प्रयोग सभी सुकवि सर्वदा समान भाव से किया करते हैं। ऐसे भावों को साहित्यिक सिके समझिए । इनका प्रचार इतना बेरोक-टोक है कि इनको बार-बार परवर्ती कवियों के पास देखकर भी उन पर किसी प्रकार का अनुचित अभियोग नहीं लगाया जा सकता। सारांश, भावापहरण अथवा भाव-सादृश्य के ये तीन प्रकार तो साहित्य-संसार में समाहत हैं, पर पूर्ववर्ती के भाव को लेकर परवर्ती उसमें अनुचित विकार पैदा कर देता है, उसकी रमणीयता घटा देता है, तो उस समय उस पर साहित्यिक चोरी का अभियोग लगाया जाता है। ऐसा भाव-सादृश्य दूषित है और उसकी सर्वथा निंदा की जाती है। हर्ष की बात है कि देवजी की कविता में इस अंतिम प्रकार के भाव-सादृश्य के उदाहरण बहुत ही न्यून मात्रा में ढूँढ़ने से मिलेंगे। उन्होंने तो जो भाव लिए हैं, उन्हें बढ़ा ही दिया है। इस विषय पर भाव-सादृश्यवाले अध्याय में अनेक उदाहरण दिए जा चुके हैं, इसलिये यहाँ उनका फिर से दोहराना व्यर्थ है। जैसा ऊपर कहा जा चुका है, कुछ भाव हमारी कविता में इतने व्यापक और प्रचलित हो रहे हैं कि उन्हें साहित्यिक सिक्का कहा जा सकता है। ऐसे भावों को पूर्ववर्ती और परवर्ती कवियों की कविता में समान रूप से पाने पर परवर्ती पर साहित्यिक चोरी का अभियोम नहीं लगाया जा सकता। यदि विहारीलाल "चैत-चंद की चाँदनी भारत किए अचेत" ऐसा कहते हैं और देवजी उसी को "देखे दुख,