परिशिष्ट
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संस्कृत एवं बुंदेलखंडी शब्दों को विशेष प्राश्रय मिला है। संस्कृत
शब्दों की अधिकता से केशव की कविता में ब्रजभाषा की सहज
माधुरी कुछ न्यून हो गई है। संस्कृत में मीलित वर्ण एवं टवर्ग
विशेष आक्षेप के योग्य नहीं माने जाते, परंतु ब्रजभाषा में इनको
श्रुति-कटु मानकर यथासाध्य इनका कम व्यवहार किया जाता है।
केशवदास ने इस पाबंदी पर विशेष ध्यान नहीं दिया है। इधर देवजी
ने मीलित वर्ण, टवर्ग एवं रेफ-संयुक्त वर्णों का व्यवहार बहुत कम
किया है; सो जहाँ तक श्रुति-माधुर्य का संबंध है, देव की ।
भाषा केशव की भाषा से अच्छी है। केशवदास की भाषा
कुछ क्लिष्ट भी है, पर अर्थ-गांभीर्य के लिये कभी-कभी क्रिष्ट भाषा
लिखनी ही पड़ती है । संस्कृत के पंडित होने के कारण केशवदास
का व्याकरण-ज्ञान दिव्य.. इससे उनकी भाषा भी अधिकतर
म्याकरण-संगत है। शब्दों के रूप परिवर्तन-कार्य को भी केशवदास
मे स्वल्प मात्रा में ही किया है। इन दोनों ही बातों में अर्थात् शब्दों :
की तोड़-मरोड़ कम करने तथा व्याकरणसंगत भाषा लिखने में वह देव
से अच्छे हैं। देवजी अनुप्रास-प्रिय हैं, व्याकरण को उन्होंने भाव
का पथ-प्रदर्शकमात्र रक्खा है, जहाँ व्याकरण द्वारा भाव
बंधता हुआ दिखलाई दिया है, वहाँ उन्होंने भाव को स्वेच्छापूर्वक
प्रस्फुटित किया है। देव की भाषा में लोच, अलंकार-प्रस्फुटन,
की सरलता एवं स्वाभाविकता. अधिक है। हिंदी-भाषा के ।
महाविर एवं लोकोक्तियाँ भी देव की भाषा में सहज सुलभ हैं।
शेक्सपियर के कई वर्णनों के संबंध में समालोचक रेल ने लिखा है-
"इन वर्णनों की विशेष छान-बीन न करके जो कोई इन्हें विना
रुकावट के पढ़ेगा, उसी को इनमें आनंद मिलेगा।" ठीक यही बात
देवजी के भी कई वर्सनों के विषय में कहीं जा सकती है। उधर
केशव का काव्य विना रुके, सोचे एवं मनन किए सहज बोधगम्य
RANDROILalas
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२८१
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