२६० देव और विहारी नहीं है। देव की भाषा में एक विशेषता यह भी है कि उसे जितनी बार पदिए, उतनी ही बार नवीनता जान पड़ेगी। केशव की भाषा में पांडित्य की आभा है, इसी कारण कहीं-कहीं पर वह कृत्रिम जान पड़ती है। देव ने पोषण करने के अर्थ में 'पुषोत है' ऐसा प्रयोग चलाया है। केशव ने ऐसी क्रियाएँ बहुत-सी व्यवहृत की हैं। उन्होंने शोभा पाने के लिये 'शोभिजति', स्मरण करने और कराने के लिये 'स्मरावै, स्मरै' तथा चित्र खींचने के लिये 'चित्रे (ऊपर तिनके तहाँ चित्रे चित्र बिचार) आदि प्रयोग किए हैं। देव ने 'झालर' तुकांत के लिये 'विशालर' और 'मालर' शब्द गढ़ लिए हैं, तो केशव ने भी ढाल के अनुप्रास के लिये 'विशाल । को 'विशालैं' और 'लाज' को 'लाल' रूप दे डाला है । जैसे-"कारी- पीरी ढालैं लाने, देखिए बिसाले अति हाथिन की अटा घन-घटा-सी परति है" (वीरसिंहचरित्र, पृष्ठ ५२)। जेहि-तेहि और जिन-तिन के प्रयोग देव और केशव की भाषा में समान ही पाए जाते हैं- "जिन-जिन ओर चितचोर चितवति प्यारी, तिन-तिन भोर विन . तोरति फिरति है।" देव के इस पद पर एक समालोचक की राय है कि 'जिन' और 'तिन' के स्थान पर 'जेहि' और 'तेहि' चाहिए, परंतु केशव के ऐसे ही प्रयोग देखकर देव का ही मत ठीक समझ पड़ता है। उदाहरणार्थ "मन हाथ सदा जिनके, तिनको बनु ही घर है, घर ही बनु है।" देव के "चल्यो न परत" महाविरे पर भी ऐसा ही आक्षेप किया गया है, पर उसका समर्थन भी केशव के काव्य से हो जाता है, जैसे-"सहिहाँ तपन-ताप पति के प्रताप, रघुबीर को बिरह बीर मोसों न सह्यो परै।" यदि 'चला नहीं जाता' के स्थान पर 'चल्यो न परै' ठीक नहीं है, तो 'सहा वहीं जाता' के स्थान पर 'न सह्यो परै' भी ठीक नहीं है । विहारी ने 'करके' की जगह 'क' लिखा है, देव ने देकर के स्थान पर 'ददै लिखा है, तो केशवने लेकर के स्थान
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