परिशिष्ट
मांस कार्यादभिगतमपां बिन्दवो वाष्पपाता-
तेजः कान्तापहरणवशाद्वायवः श्वासदैात् ;
इत्थं नष्टं विरहवपुषस्तन्मयत्वाच्च शून्यं,
जीवत्येवं कुलिशकठिनो रामचन्द्र किमेतत् ।
"साँसन ही सो समीर गयो, अरु असुन ही सब नीर गयो ढरि ।
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि ।
"देव" जियै मिलिबेई कि पास कि आस पास अकास रह्यो भरि
जा दिन ते मुख फेरि, हरे हँसि, हेरि हियो जु लियो हरिजू हरि ।
रामचंद्र के आश्चर्य को देव ने कैसा हल कर दिया ! 'देव जियै
मिलिबेई कि पास' में अपूर्व चमत्कार है !
निदान मौलिकता की दृष्टि से देव का पद केशव के पद से
ऊँचा है। केशव और देव कवि भी हैं और प्राचार्य भी। हमारी
सम्मति में केशव में प्राचार्यत्व-गुण विशिष्ट है और देव में
कवित्व-गुण । अस्तु । कवित्व-गुण की परीक्षा में जहाँ तक भाषा
और भावों की मौलिकता का संबंध है, वहाँ तक हमने यही निश्चय
किया है कि देवजी केशवदास से बढ़कर हैं।
- रस और अलंकार
केशव का काव्य अलंकार-प्रधान है । अलंकार-निर्वाह केशवदास
का मुख्य लक्ष्य है। प्राचीन साहित्याचार्यों का मत था-
"अलङ्कारा एव काव्ये प्रधानमिति प्राच्यानां मतम्"'
स्वयं केशवदास ने कहा है-
__ "भूषण-बिन न बिराजई कबिता-बनिता मित्त !"
उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों का सुंदर चमत्कार
केशव के काव्य में अपूर्व है । हमारी राय में संदेहालंकार का
विकास जैसा केशव के काव्य में है, वैसा हिंदी के अन्य किसी कवि
के काव्य में नहीं है। केशवदास की परिसंख्याएँ भी विशेषतामयी
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२८५
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