२६४ देव और विहारी हैं । सारांश, केशवदास ने अलंकार का प्रस्फुटन वास्तव में बड़े ही मार्के का किया है। उधर देव कवि का कान्य रस-प्रधान है। उनका लक्ष्य रस का पारपाक है । उनके ऐसे छंद औसत में बहुत अधिक हैं, जिनमें रस का संपूर्ण निर्वाह हुआ है । रसों में भी शृंगार रस ही उनका प्रधान विषय है । हमारे इस कथन का यह तात्पर्य नहीं कि अलंकार-प्रधान होने से केशव के काव्य में रस-चमत्कार नहीं है, न हमारा यही मतलब है कि रस-प्रधान होने से देव की कविता अलंकार-शून्य है । कहने का तात्पर्य केवल यह है कि एक कवि का । प्रधान लक्ष्य अलंकार है तथा दूसरे का रस । रूपक, उपमा एवं स्वभावोक्ति के सैकड़ों अनूठे उदाहरण देव की कविता में भरे पड़े हैं। जो हो, नवीन प्राचार्यों का सम्मान रस की ओर अधिक है, यहाँ तक कि एक आचार्य ने तो रसात्मक काव्य को ही काव्य माना है। ऐसी दशा में केशव और देव की कविता के संबंध में वही विवाद उपस्थित हो जाता है, जो रस और अलंकार के बीच उठता है । यहाँ इतना स्थान नहीं कि इस बात का निर्णय किया जाय कि अलंकार श्रेष्ठ है या रस । हाँ, संक्षेप में हम यह कह देना चाहते हैं कि हम रस को ही प्रधान मानते हैं। भाव रस पर अवलंबित है,अलंकार पर नहीं। अलंकार तो भाव की शोभा बढ़ानेवाला है।सारांश, देव का काव्य रस-प्रधान होने के कारण भी हम देव ही में कवित्व-गुण का आधिक्य पाते हैं। प्राचार्यत्व में केशवदास देव से बढकर हैं। देव से ही नहीं, बरन् हमारी सम्मति में, इस दृष्टि से, उनका पद सबसे ऊँचा है । कविता का ढंग सिखलानेवाला ग्रंथ कवि- प्रिया से बढ़कर और कौन है ? देव के 'काव्य-रसायन' में प्रौड़ विचार भले ही हों; पर विद्यार्थी के लिये जिस सुगम बोधगम्य मार्ग की आवश्यकता है, वह कविप्रिया में ही है। देव और केशव कवि और प्राचार्य तो थे ही, साथ ही
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