पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२८७

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परिशिष्ट २९१ उनका विचार-क्षेत्र भी विस्तृत था । केशवदास की 'विज्ञान-गीता' और देव का 'देव-माया-प्रपंच' नाटक इस बात को सूचित करते हैं कि अन्य शास्त्रीय और धार्मिक बातों पर भी इन दोनों कवियों ने अच्छा विचार किया था। केशवदास को रामचंद्र का इष्ट था और देव ने हितहरिवंश-संप्रदाय के मुख्य शिष्य होकर कृष्ण का गुण-गान किया है । वीरसिंह-देव-चरित्र देखने से पता चलता है कि केशवदास को ऐतिहासिक कथाएँ लिखने में रुचि थी । इधर देव का 'राग-रखाकर' देखने से जान पड़ता है कि देवजी का संगीत पर भी अच्छा अधिकार था। तुलना केशव के काव्य में कला के नियम भाव का नियंत्रण करते हैं। भाव नियमों के वश में रहता है। नियमों को तोड़कर अपना दर्शन नहीं दे सकता । देव के काव्य में कला के नियम भाव के पथ-प्रदर्शकमात्र हैं। उसे अपने बंधन में नहीं रख सकते । भाव नियमों की अवहेलना नहीं करता, परंतु उनकी परतंत्रता में भी नहीं रहना चाहता । संक्षेप में केशव और देव के काव्य में इसी प्रकार का पार्थक्य है। केशव और देव के काव्य की तुलना करते हुए एक मर्मज्ञ समालोचक ने दोनों कवियों के निम्नलिखित छंद उद्धृत कर लिखा था कि देव ने केशव का भाव लिया है, परंतु उनके भाव-चमत्कार को नहीं पा सके- प्रेत की नारि-ज्यों तारे अनेक चढ़ाय चले, चितवै चहुँघातो; कोढ़िनि-सी कुकरे कर-कंजनि, "केशव" सेत सबै तन तातो। भेटत ही बरै ही, अब ही तौ वरयाय गई ही सुखै सुख सातो; कैसी करौं, कब कैसे बचौं, बहुलो निसि आई किए मुख रातो। केशव