देव और विहारी का पाठकों को बड़ी युक्ति से परिचय दे देते हैं, परंतु अनुभव-शून्य समालोचक इन बेचारों को गालियों से संतुष्ट करते हैं । इसी कारण आज कल ग्रंथकर्ता समालोचकों में कुछ भी श्रद्धा नहीं रखते। समालोचक कभी-कभी पुस्तक विशेष की प्रशंसा कर तो देते हैं, परंतु इसको वे बड़े पुण्य-कार्य से कदापि न्यून नहीं समझते । यदि बीच में कहीं निंदा करने का मौका मिल गया, तो फिर कहना ही क्या ? उनका सारा मसखरापन और क्रोध इन्हीं बेचारे लेखकों पर शांत होता है । समालोचना करने के बहाने ये लोग निज प्रिय वस्तु का गुण-गान करने से नहीं चूकते । इस प्रकार स्वविचार प्रकट करने में निंदा का भय बहुत कम रहता है। समालोचक जिस ग्रंथकर्ता के पक्ष में समालोचना करता है, उसका वह मानो महान् उपकार करता है। इसके अतिरिक्त, जैसा कि हम पहले ही लिख पाए हैं, वह उसको अपने से कम परिष्कृत विचारों का तो समझता ही है । इन समालोचनाओं में समालोचक की गुण-गरिमा स्पष्ट झलकती है-ऐसा जान पड़ता है, मानो सारे मसखरापन, ज्ञान तथा विद्या का पट्टा इन्हीं समालोचकजी के नाम लिखा हो । इस प्रकार की समालोचना का प्रभाव साधारण जन- समुदाय पर विशेष रूप से पड़ता है, क्योंकि उन्हें इस विषय के समझने का बिलकुल मौका नहीं मिलता कि स्वयं समालोचक समालोच्य विषय को समझने में समर्थ हुआ है या नहीं। और, यदि समालोचक सीधे-सीधे शब्दों में अपनी कठिनाइयों तथा ग्रंथकर्ता के भावों ही का समर्थन करने लगे, तो साधारण जन उसमें मूर्खता ओर बनावट का संदेह करने लगते हैं। निडर स्पष्ट शब्दों ही में किसी विषय को समालोचना होने से वाद-विवाद का डर नहीं रहता। अतः आत्मरक्षा के विचार से भी समालोचक को तीव्र, मर्म-भेदी, कठोर, गर्व-युक्त शब्दों की आवश्यकता पड़ती है।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२९
दिखावट