पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१८ देव और विहारी रात बीतने के बाद फिर निशा की लालिमा नहीं रह जाती। देव के छंद में प्रभात-वर्णन बिलकुल स्वाभाविक है । भार- तेंदुजी ने देव के छंद को पसंद करके अपनी सहृदयता का परि- चय दिया है। यहाँ पर इतना स्थान नहीं कि देव और केशव के सदृश- भाववाले छंदों पर विस्तार के साथ विचार किया जा सके. इसलिये यहाँ केवल एक-एक छंद देते हैं । इन दोनों छंदों में किसका छंद बदिया है, इस विषय में हम केवल इतना ही लिखना चाहते हैं कि एक छंद में विषय-मार्ग में सहायता पहुँचाने- वाली दूती का कथन है तथा दूसरे में अपना सर्वस्व न्योछा- वर करनेवाली नायिका की मर्म-भेदिनी उक्ति । एक में दती का आदेश है कि जिस नायिका को प्राज मुश्किल से फाँस लाई हूँ, उसे खूब संभालकर रखना, जिसमें विरक्त न हो जाय । दूसरे में प्राणेश्वर की अनुपस्थिति में भी उसके प्रति प्रेम की यह दशा है कि श्याम रंग के अनुरूप ही सब वस्तुएँ व्यवहार में लाई जाती हैं । ये दोनों छंद भी हमने केशव भक्त विज्ञ समालोचक की समालोचना से ही लिए हैं- नैनन के तारन मैं राखौ प्यारे, पूतरी के, मुरली-ज्यों लाय राखौ दसन-बसन में; राखौ मुज-बीच बनमाली बनमाला करि, चंदन-व्यों चतुर, चदाय राखो तन मैं। "कसोराय" कल कंठ राखौ बलि, कठुला के, • करम-करम क्यों हूँ आनी है भवन मैं ; चंपक-फली-सी बाल सूंधि-धि देवता-सी, लेहु प्यारे लाल, इन्हें मेलि राखौ तन मैं। केशव