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परिशिष्ट
"देव" मैं सीस बसायो सनेह कै, माल मृगम्मद-बिंदु कै राख्यो ;
कंचुकी मैं चुपरो कार चोवा, लगाय लयो उर में अभिलाख्यो ।
लै मखतूल गुहे गहने, रस मूरतिवंत सिंगार के चाख्यो ।
साँवरे लाल को साँवरी रूप मै नैनन को कजरा करि राख्यो ।
सारांश
कुछ लोग कवि-कुल-कलश केशवदास को बहुत साधारण कवि
समझते हैं। उनसे हमारा घोर मतभेद है । केशवदास की. कविता
में प्राचीन काव्य-कला के अादर्श का विकास है । अँगरेज़ी-भाषा में
जिन कवियों को 'कासिकल पोएट कहते हैं, केशव भी वही हैं। हिंदी
के काव्य-शास्त्र के प्राचार्यों में उनका आसन सर्वोच्च है ।
कवित्व-गुण में वह सूर, तुलसी, देव और विहारी के बाद हैं। इन
चारों कवियों की भाषा केशवदास की भाषा से अच्छी है । इन
चारों के काव्य रस-प्रधान हैं। देव में मौखिकता है। केशवदास
को अर्थ-प्राप्ति हिंदी के सभी कवियों से अधिक हुई. है। हिंदी
भाषा-भाषियों को केशवदास का गर्व होना चाहिए । देव कवि
की भाषा अपूर्व है। हिंदी के किसी भी कवि की भाषा इनकी भाषा से
अच्छी नहीं। इनका काव्य रस-प्रधान है। कुछ लोग देव को
महाकवि मानने में कविता का अपमान समझते हैं। वह देव को
सरस्वती का कुपुत्र बतलाते हैं। हमारी सम्मति में विद्वानों को ऐसे
कथन शोभा नहीं देते । ऐसे कथनों की उपेक्षा करना-उनके
प्रत्युत्तर में कुछ न लिखना ही हमारी समझ में इनका समुचित
उत्सर है । हमारा विश्वास है, देवजी पर जितनी ही प्रतिकूल
बालोचनाएँ होंगी, उतना ही हिंदी-जगत् में उनका प्रादर बदेका।
हिंदी भाषा महाकवि देव के ऋण से कभी भी उशन नहीं हो
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२९१
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