परिशिष्ट
जीवत तो ब्रत-भूख सुखौत सरीर-महासुर-रूख हरे को
ऐसी असाधु असाधुन की बुधि, साधन दंत सराध मरे को।
आज कल संसार में साम्यवाद की लहर बड़े वेग से बह रही
है। समता के सिद्धांतों का घोष बड़े-बड़े साम्राज्यों की नींव हिला
रहा है । इंगलैंड में भी मज़दूर-दल शासन कर चुका है, पर यह
सब वर्तमान शताब्दी की बातें हैं। आज से तीन-चार सौ वर्ष
पहले तो संसार में ऐसे विचार भी बिरले थे, पर देवजी के एक छंद
में उन्हीं को देखकर हमारे आश्चर्य की सीमा नहीं रहती । कवि
कहता है कि सभी की उत्पत्ति “रज-बीज" से हुई है। मरने
पर भी सभी की दशा एक ही-सी होती है। देखने में भी सब एक
ही प्रकार के हैं। फिर यह ऊँच-नीच का भेद-भाव कैसा ? पाँडेजी
महाराज क्यों पवित्र हैं और अन्य सजन शूद्र क्यों अपवित्र ?
यह सब प्रबल स्वार्थियों की लीला है। उन्हीं लोगों ने वेदों का
गोपन करके ऐसी मनमानी धाँधली मचा रक्खी है-
हैं उपजे रज-बीज ही ते, बिनसेइ सबै छिति धार के छाँड़े;
एक-से देवु कछू न बिसेखु, ज्यों एक उन्हारि कुमार के मॉडे;
तापर आपुन ऊंच है, औरन नीच कै, पाँय पुजावत चाँड़े;
बेदन दि , करी इन इंदि, सुसूद अपाक्न, पावन पाँड़े।
मत-मतांतरों के विचारों का वर्णन 'देव-माया-प्रपंच' नाटक में
अधिक है। स्थल-संकोच के कारण हम यहाँ पर उसके अधिक
उदाहरण देने में असमर्थ हैं।
__ 'वैराग्य-शतक' में भगवान् के विश्व-रूप एवं वेदांत-तत्त्व का।
स्पष्टीकरण परम मनोहर हुआ है । उस प्रकार के कुछ वर्णन भी
पाठकों की भेंट किए जाते हैं।
देवजी की राम-पूजा कितनी भव्य है ! उनका विचार कितना
विश्व-व्यापी और उन्नत है ! उनके राम साधारण मंदिर में नहीं
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२९५
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