इससे संसार-का-संसार उसे देखने के लिये लालायित हो रहा है।
विहारीलाल के यहाँ दिठौना चिबुक का तिल नहीं है। वहाँ.
दीठिन लगने पावे, इस विचार से सच्चा दिठौना लगाया गया है
पर फल इनके यहाँ भी उलटा हुआ है। दिठौना से सौंदर्य और
भी बढ़ गया है, जिससे पहले की अपेक्षा लोग उसी मुख को दुगुने
चाव से देखते हैं । दोनों कवियों के भाव साथ-साथ देखिए-
चिबुक-दिठौना बिधि कियो, दीठि लागि जनि जाय ;
सो तिल जगमोहन भयो, दीठिहि लेत लगाय ।
मुबारक
लोने मुख डीठि न लगै, यह कहि दीनो ईठि;
दूनी है लागन लगी दिए दिठौना दीठि ।
विहारी
दोनों दोहों के भाव में शब्द-संघटन में एवं वर्णन शैली तक में
कितना मनोहर सादृश्य है ! फिर भी विहारी विहारी हैं और
मुबारक मुबारक।
जान पड़ता है, पूर्ण अध्यवसाय के साथ दूँढ़ने से सतसई के
सभी दोहों का भाव पूर्ववर्ती कवियों की कृति में दृष्टिगोचर हो
सकेगा । देखिए, सतसई के मंगलाचरणवाले दोहे का पूर्वार्द्ध तक तो
पूर्ववर्ती केशव के काव्य को देखकर बनाया गया प्रतीत होता है-
आधार रूप भव-धरन को राधा हरि-बाधा-हरनि ।
या
राधा "केसव" कुँवर की बाधा हरहु प्रवीन ।
केशव
भव-बाधा हरहु राधा नागरि सोय ।
विहारी
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देव और बिहारी
