परिशिष्ट ३१६ की रचना सतसई बनने के कुछ पूर्व ही की थी । 'भाषा-भूषण' का निन्न-लिखित दोहा बहुत प्रसिद्ध है- रागी मन मिलि स्याम सों भयो न गहरो लाल ; यह अचरज, उञ्जल भयो, तज्यो मैल तिहि काल । जसवंतसिंह ठीक इसी भाव को विहारीलाल ने इस प्रकार दरसाया है- या अनुरागी चित्त की गति समुभै नहिं कोय; ब्यों-ज्यों बूडै स्याम-गँग, त्योन्त्यों उजल होय । विहारी (६) ज्यों-ज्यों प्रियतम से सम्मिलन का समय निकट पाता जाता है, त्यों-त्यों स्नेहभाव परिपूर्ण नायिका अपने मंदिर में इधर से उधर जल्दी-जल्दी टहल रही है। नायिका की इस दशा का भाव एक कवि ने तो प्राणप्यारे के विदेश से लौटने के समय का व्यक्त किया है, पर दूसरा इसी भाव को किसी दिन के अवसान के बाद निशारंभ के ही संबंध में व्यक्त कर डालता है। दोनों भाव जिस भाषा द्वारा प्रकट किए गए हैं, उसमें अद्भुत साम्य है- पति आयो परदेस ते ऋतु बसंत की मानि । झमकि-झमकि निजु महल मैं टहलें करे सुरानि । कृपाराम ज्यों-ज्यों श्रावै निकट निसि, त्यों-त्यों खरी उताल ; झमकि-झमकि टहलें करे, लगी रहॅचटे बाल । विहारी (७) कवि मुबारक की कल्पना है कि नायिका के चिबुक पर ब्रह्मा ने तिल इसलिये बना दिया था कि वह दिठौना का काम करे, उसके कारण लोगों की दृष्टि का बुरा फल न हो । पर बात उलटी हो रही है। तिल की शोभा और भी रमणीय हो गई है।
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