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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/३२

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भूमिका ३५

आभास इनमें कुछ भी नहीं मिलता । ग्रंथ में काव्य के सूक्ष्माति- सूक्ष्म नियमों का उल्लंघन कहाँ-कहाँ हुआ है, इसके दिखलाने में समालोचक यथासाध्य प्रयत्न करता है। परंतु वह भिन्न-भिन्न लोगों की रुचि के अनुसार है या नहीं, इसका समालोचना में कहीं कुछ पता नहीं लगता । सारांश यह कि ऐसी समालोचनाओं द्वारा ग्रंथ के विषय में सब हाल जानते हुए भी यदि यह कहें कि कुछ नहीं जानते, तो अत्युक्ति न होगी।

ग्रंथ लिखने से ग्रंथकर्ता का क्या अभिप्राय है, यह लिखने का समालोचक बहुत कम कष्ट स्वीकार करता है । कुछ समालोचनाओं की भाषा ऐसी निर्जीव-सी होती है कि उनमें अनेकानेक गुणों का उल्लेख होते हुए भी समालोच्य पुस्तकें पढ़ने की इच्छा ही नहीं होती और कुछ समालोचनाएँ ऐसे जोरदार शब्दों में होती हैं कि पुस्तक मँगाकर पढ़े विना कल ही नहीं पड़ती। कुछ समालोचक ऐसे होते हैं, जिन्हें दोषों के अतिरिक्त और कुछ नहीं देख पड़ता। इसके विपरीत कुछ ऐसे भी हैं, जो गुण-गानमात्र ही किया करते हैं। गुण-गायक समालोचकों की समालोचनाएँ वैसी ही हैं, जैसे नदी का बहता हुआ जल। चाहे जो वस्तु गिर पड़े, नदी सब कुछ बहा ले जाती है। ऐसे ही चाहे जैसा ग्रंथ हो, वह उनकी दृष्टि में प्रशंसनीय बन जाता है । दोषदर्शक समालोचकों के कारण हमारी किसी भी ग्रंथ पर श्रद्धा नहीं होने पाती। पुस्तक की अनुचित प्रशंसा प्रायः भिन्न-भाव के कारण होती है और निंदा दलबंदी के अनुसार । प्रत्येक मिन्न दलवाला अपने प्रतिद्वंद्वी दल की लिखी हुई पुस्तकों की इतनी निंदा करता है, मानो उनके कर्ता पूर्णतया मूर्ख ही हों । ग्रंथ की अशुद्धियाँ बढ़ाकर लिखने की कौन कहे, कभी तो अनुमान से ऐसी-ऐसी विचित्र बातें गढ़ ली जाती हैं, जिनका कहीं सिर-पैर ही नहीं होता।

कभी-कभी समालोचक किसी कारण विशेष से विवश होकर