बाह छोड़ाए जात हो निबल आनिकै मोहिं ; हिरदै सों जब जाइहौ, मर्द सराही तोहिं । सूरदास (२) प्रेम-तत्व का ज्ञान मन को होता है । मन वियोगशील नहीं है । प्रणयि-युग्म को मानसिक संयोग सदा सुलभ है। श्रीरामचंद्रजी का कथन है- तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मन मोरा ; सो मन सदा रहत तोहि पाहीं, जानु प्रीति बस इतनेहिं माहीं। तुलसीदास (३) पतंग कितना ही ऊपर क्यों न उड़ जाय, पर वह सदा उड़ानेवाले के वश में ही रहती है; जब चाहा, अपने पास खींच लिया। शरीर से भले ही विछोह हो जाय, पर मन तो सदा साथ रहता है- कहा भयो, जो बोछर ? तो मन, मो मन' साथ ; उड़ी जाहु कितहू गुड़ी, वऊ उड़ायक-हाथ । विहारी (४) शारीरिक विछोह विछोह नहीं है-एक साधारण-सी बात है। हाँ, यदि मन का भी वियोग हो जाय, तो निस्संदेह पाश्चर्य-घटना है। ऊधो हहा हरि सों कहियो तुम, हौ न इहाँ यह हौं नहिं मानौं या तन तैं बिछुरे ते कहा ? मन तैं अनतें जु बसौ, तब जानौं । देव [ग] पावस के धन विरहिणी को जैसे दुःखद होते हैं, वह हिंदी कविता पढ़नेवालों को भली भाँति मालूम है । भिन्न-भिन्न कवि इस दुःख को चित्रण जिस चतुरता से करते हैं, उसके कतिपय उदाहरण लीजिए-
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