पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४१
भूमिका

(४) श्रीरामचंद्रजी विरह-कृशता-वश 'मुद्रिका' का कंकणवत् व्यवहार करने लगें, यह बहुत बड़ी बात है। इसकी संभवनीयता केवल कवि-जगत् में है। विहारी और मतिराम की उक्तियाँ भी वैसी ही हैं। पार्थिव जगत् में ऐसा कार्य असंभव है । फिर भी ऐसी असंभवनीयता कवि के काव्य को दोषावह नहीं बना सकती। स्वाभाविकता-प्रिय देवजी विरह-वश कृशतनू नायिका के हाथ की चड़ियाँ गिर जाने देते हैं । जो चूड़ियाँ कोमल हाथ को दबा-दबाकर बड़े यत्न से पहनाई गई थीं, उनका हाथ के कृश हो जाने पर गिर जाना कोई बड़ी बात नहीं है । ऐसी शारीरिक कृशता इस जगत् में भी मुलभ है ; काव-जगत् का तो कहना ही क्या ? केशव, विहारी एवं मतिराम ने कृशता की जो अवस्था दिखलाई है, उस तक देवजी नहीं पहुंचे हैं; पर उनके वर्णन में स्वभावोक्ति की झलक है- "देवजू" आजु मिलाप की औधि, बीतत दखि बिसेखि बिसूरी : हाथ उठायो उड़ायबे को, ___ उड़ि काग-गरे परी चारिक चूरी । [ख] एक-दूसरे को चित्त से चाहनेवालों का शारीरिक वियोग भले ही हो जाय, पर मन और हृदय में दोनों का सदा संयोग रहता है- वहाँ से संसार की कोई भी शक्ति उनको अलग नहीं कर पाती। (१) सूरदास का हाथ छुड़ाकर उनके सर्वस्व कृष्णचंद्र भाग गए । बेचारे निर्बल सूर कुछ भी न कर सके । पर उन्होंने अपने बाल-गोपाल को हृदय-मंदिर में ऐसा 'कैद' किया कि बेचारे को वहाँ से कभी छुटकारा ही नहीं मिला-