देव और विहारी स्पष्ट रूप से कह देना चाहते हैं कि हमें देव का पक्षपात नहीं है और विहारी का विरोध भी नहीं। हमने इन दोनों कवियों की रचनाओं को जैसा कुछ समझा है उससे यही राय कायम कर सके हैं कि देवजी विहारीलालजी की अपेक्षा अच्छे कवि हैं। साहित्य-संसार में हमें यह राय प्रकट करने का अधिकार है और हमने इसी अधिकार का उपयोग किया है। कुछ अन्य विद्वानों की यह राय है कि विहारीजी देव से बढ़कर हैं। इन विद्वानों को भी अपनी राय प्रकट करने का हमारे समान ही अधिकार है । बहुत ही अच्छी बात होती, यदि सभी विद्वानों की देव-विहारी के संबंध में एक ही राय होती। पर यदि ऐसा नहीं हो सका तो हरज ही क्या है। ऐसे मामलों में मतभेद होना तो स्वाभाविक ही है। जो हो, देव के संबंध में कुछ विद्वानों की जो राय है हमारी राय उससे भिन्न है और हम अपनी राय को ही ठीक मानते हैं। हम विहारी के विरोधी हैं, इस लांछन का हम तीन शब्दों में प्रतिवाद करते हैं। देव को विहारी से बढ़कर मानने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम विहारी के विरोधी हैं । विहारी की कविता पढ़ने में हमने जितना समय लगाया है उतना देव की कविता में नहीं । हमें विहारी का विरोधी बतलाना सत्य से कोसों दूर है। . इस संस्करण में हमने 'भाव-सादृश्य' और 'देव-विहारी तथा दास'-नामक नए अध्याय जोड़ दिए हैं तथा 'रस-राज' और 'भाषा' वाले अध्यायों में कुछ वृद्धि कर दी है । भूमिका में से कुछ अंश निकाला गया तथा कुछ नया जोड़ दिया गया है । इधर देव और विहारी की कविता पर प्रकाश डालनेवाले कई निबंध हमने समय-समय पर हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराए थे। उनमें के कई निबंधों को हमने परिशिष्ट-रूप से इस पुस्तक में जोड़ दिया है । चि० नवलविहारी ने 'चक्रवाक' के संबंध में
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