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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/५३

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५६ देव और बिहारी

सब बहुत ठीक । पर केशवदास की चपलनयनी के हँसने से हमारे मदनगोपाल (इंद्रियों के स्वामी, श्रृंगार-मूर्ति, रास-लीला के समय सैकड़ों गोपियों का गर्व खर्व करनेवाले ) के केवल नेत्र ही नहीं झिलमिला जाते हैं बरन् "चित चकचौंध" जाता है । नेत्रों पर प्रकाश पड़कर उस प्रभा का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि चित्त में भी चकाचौंध पड़ जाती है। हमारी राय में केशव का कवित्त दोहे से जरा भी नहीं दबता है । परंतु जो पक्षपात का चश्मा लगाए हुए है, उससे कौन क्या कहे ?

इसी प्रकार विहारीलाल के "जल न बुझै बड़वागि" से केशव के "चाटे प्रोस असु क्यों सिरात प्यास डाढ़े हैं" की तुलना करते समय भाष्यकार ने अपनी मनमानी सम्मति देने में श्रानाकानी नहीं की है। कहीं श्रोस चाटने से प्यासे की प्यास बुझती है, इस लोकोक्ति को केशवदास ने अपने छंद में खूब चमत्कृत ढंग से दिखलाया है। हमारी राय में “जल न बुझे बड़वागि" में वह बात नहीं है। अगर जल का अर्थ 'समुद्र-जल' है, जैसा कि भाष्यकार कहते हैं, तो दोहे का 'जल' पद असमर्थ है और विहारीलाल की कविता में असमर्थ पद-दूषण लगता है । कृपया उक्ति की सूक्ष्मता पर दृष्टि दीजिए। यह ख़याल छोड़ दीजिए कि उन्होंने 'बड़वानल' और 'समुद्र-जल' कहा है और ये केवल प्यासे और श्रोस-जल को ला सके हैं । ओस से प्यासे की प्यास न बुझने में जो चमत्कार है, वह दर्शनीय है । सहृदय इसके साक्षी हैं।

विहारी ने केशव के भाव लिए हैं । हमारे पास इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं । पर स्थल-संकोच हमें विवश करता है कि कुछ ही उदाहरण देकर हम संतोष करें-

    (१) दान, दया, सुभसील सखा
       बिझुकै, गुन-भिक्षुक को बिझुकावैः