पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/५२

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भूमिका
     नख-सिख लौं सिथिल गात, बोलत नहिं बनत बात,
     चरन धरत परत अनत, बालस-अनुरागे ।
     अंजन-जावक कपोल, अधर सुघर, मधुर बोल,
     अलक उलटि अरझि रही पाग-पेंच-भागे ।
     तव छल नहिं छपत छैल, छूटे कर्टि-पीत-चैल,
     उरया-बिच मुक्त-माल बिलसत बिन धागे।
    "सूरस्याम' बने श्राजु, बरनत नहिं बनत साजु,
    निरखि-निरखि कोटि-कोटि मनसिज-मन ठागे ।

सूरदास का अद्भुत काव्य-कौशल दर्शनीय है, कथनीय नहीं। सूर की उपेक्षा करने में शर्माजी ने भारी भूल की है।

              [ख]

केशवदास सूर और देव दोनों ही से अधिक भाग्यशाली हैं, क्योंकि भाष्यकार ने विहारी के कई दोहों की तुलना केशवदास के कवित्तों से की है तथा तुलना के पश्चात् विहारीलाल को बलात् श्रेष्ठ ठहराया है। केशव और विहारी दोनों में से कौन श्रेष्ठ है, इस पर हम अपनी स्वतंत्र सम्मति देने के पूर्व यह कह देना आवश्यक समझते हैं कि जिन कवित्तों से तुलना की गई है, केवल उन्हीं पर विचार करने से तो केशवदास किसी भी प्रकार हीन प्रमाणित नहीं होते हैं।

संजीवन-भाष्य के पृष्ठ १०१ पर केशव और विहारी के जिन

छंदों की तुलना की गई है उनमें हमारी राय में "चौका चमकनि चौंध में परत चौंध-सी डीठि” से “हरे-हरे हसि नैक चतुर चपल- नैन चित चकचौंधै मेरे मदनगोपाल को" किसी भी प्रकार कम नहीं है । विहारीलाल की नायिका के ज़रा हँसने से “दाँतों का चौका खुलता है, तो उसी के प्रकाश से देखनेवाले की आँखों में चकाचौंध छा जाती है कि मुंह मुश्किल से नज़र आता है।" यह