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५८ | देव और बिहारी |
नहै नचावति हित रतिनाथ मरकत कुटिल लिए जनु हाथ । (ख) काछे सितासित काछनी "केशव" पातुर ज्यो पुतरीन बिचारी; कोटि कटाफ नर्च गति भेद, नचावत नायक नेहनि न्यारो । बाजतु है मृदु हास मृदंग-सो, दीपति दीपन को उजियारो ; देखतु हो यह देखतु है हरि होत है आँखिन ही मैं अखारो । केशव सब अँग करि राम्वी सुघर नायक नेह सिखाय; रस-युत लेत अनंत गति पुतरी पातुर राय । विहारी सोहति है उर मै मणि यों जनु जानकी को अनुराग रह्यो मनु । (४) सोहत जन-रत राम-उर;देखत,जिनको भाग; आय गयो ऊपर मनो अंतर को अनुराग । केशव उर मानिक की उरबसी निरखि घटत दृग-दाग; छलकत बाहेर भरि मनौ तिय-हिय को अनुराग । विहारी
(५) गति को भार महावरै, अग अंग को मार;
केशव नख-शिख शोभिजै, शोभाई श्रृंगार । केशव