क भूमिका भूषन-भार सॅमारिहै क्यों यह तन सुकुमार ? सूधे पायँ न धर परत शोभा ही के भार ! विहारी [ग] पक्षपात का एक उदाहरण और लीजिए । तोषजी के कवित्त का एक पद इस प्रकार है- “कृजि उठे चटकाली, चहूँ दिसि फैल गई नभ-ऊपर लाली ।" इसमें “कृजि उठे चटकाली" के विषय में भाष्यकार का मंतव्य मनन करने योग्य है । वह इस प्रकार है- 'कूजि उठे चटकाली चहूँ दिसि' में महावरा बिगड़ गया। चिड़ियों के लिये 'चहकना और भौंरों के लिये 'गुंजारना' बोलते हैं, 'कूजना' नहीं कहते ।" आश्चर्य ! महान् आश्चर्य !! यह भूल तो विचित्र ही है। देखिए, तोषजी ने एक स्थान पर यही भूल और भी की है ; यथा- "कबूतर-सी कल कूजन लागी ।" कविवर रघुनाथ भी भूलते हैं। उन्होंने भी कह डाला है-“देख, मधुव्रत गूंजे चहूँ दिशि, कोयल बोली, कपोतहु कूजे ।" यही क्यों, यदि मै भूलता नहीं हूँ, तो "विमल सलिल, सरसिज बहु रंगा, जल-खग कूजत, गुंजत मुंगा।" में महात्मा तुलसीदास से भी भूल हो गई है। बेचारे सूर तो उपेक्षणीय हैं ही ; पर वे भी इस भूल से बचे नहीं हैं ; यथा- "कंयु-कंठ नाना भनि-भूषन, उर मुक्ता की माल ; कनक-किंकिनी, नूपुर-कलरव, कूजत बाल-मराल ।” प्यारे हरिश्चंद्र, तुम तो ऐसी भूल न करते ; पर हा ! “कोकिल-कूजित कुंज-कुटीर" कहकर तुमने तो गीतगोविंद की याद दिला दी, जिसमें जयदेव से भी यही भूल हो गई है। नागरी-प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित और बाबू श्यामसुंदरदास बी० ए० द्वारा संपादित 'हिंदी-शब्दसागर' के पृष्ठ ६१४ पर भी यह भूल न-जाने कैसे भ्रम-वश आ गई ! धन्य ! इसे भूल कहें या हठ या शुद्ध प्रयोग ?
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