पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/७५

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रस-सज . सभी रूपों में, खूब स्पष्ट वर्णन है। हमारे कालिदास ने भी नर-नारी- प्रेम को बड़े कौशल के साथ चित्रित किया है । अतः यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि प्रेम का वर्णन अब तक संसार के कविता-क्षेत्र में खूब प्रधान रहा है । यहाँ तक कि संस्कृत और हिंदी-साहित्य में शृंगार रस में प्रेम के स्थायी भाव रहने के कारण ही वह सब रसों का राजा माना गया है । नर-नारी-प्रीति को संसार के बहुत बड़े विद्वानों ने मनुष्यता के विकास के लिये उपयोगी भी बतलाया है। पर आज नर-नारी-प्रीति से संबंध रखनेवाली कविता के विरुद्ध कुछ लोगों ने आवाज़ उठाई है। हम साफ़-साफ कह देना चाहते हैं कि दांपत्य-प्रेम से संबंध रखनेवाली कविता के विरुद्ध हमें कोई भी मुनासिब दलील नहीं दिखाई पड़ती । स्वकीयानों ने अपने पवित्र प्रेम से संसार को पवित्र किया है, कर रही हैं और करती रहेंगी। महात्मा गांधी ने भी दांपत्य-प्रेम की प्रशंसा की है- "दंपति-प्रेम जब बिलकुल निर्मल हो जाता है तब प्रेम परा- काष्ठा को पहुँचता है-तब उसमें विषय के लिये गुंजायश नहीं रहती-स्वार्थ की तो उसमें गंध तक नहीं रह जाती। इसी से ऋवियों ने दंपति प्रेम का वर्णन करके प्रात्मा की परमात्मा के प्रति लगन को पहचाना है और उसका परिचय कराया है। ऐसा प्रेम विरल ही हो सकता है । विवाह का बीज भासक्ति में होता है । तीन आसक्ति जब अनासक्ति के रूप में परिणत हो जाय और शरीर-स्पर्श का ख़याल तक न लाकर, न करके जब एक श्रात्मा दूसरी आत्मा में तल्लीन हो जाती है तब उसके प्रेम में परमात्मा की कुछ झलक हो सकती है । यह वर्णन भी बहुत स्थूल है। जिस प्रेम की कल्पना मैं पाठकों को कराना चाहता हूँ, वह निर्विकार होता है। मैं खुद अभी इतना विकार-शून्य नहीं हुआ, जिससे मैं उसका यथावत् वर्णन कर सकूँ । इससे मैं जानता हूँ कि जिस भाषा के द्वारा मके