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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/८४

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देव और विहारी राति द्योस होसै रहै, मान न ठिक ठहराय; जेतो औगुन हूँढियै, गुनै हाथ परि जाय । ऊपर जो तीन उदाहरण दिए गए हैं, उनमें पहला उदाहरण जिस कवि की रचना है, वह दूसरे और तीसरे उदाहरण के रचयिताओं का पूर्ववर्ती है। दूसरे और तीसरे पहले के परवर्ती, पर परस्पर समसामयिक हैं। तीनों ही कविताओं का भाव बिलकुल स्पष्ट है और यह भी प्रकट है कि दूसरे और तीसरे कवि ने पहले कवि का भाव अपनाया है । भापा की मधुरता और विचार की कोमलता में दूसरा सबसे बढकर है । “मान करन की बिरियाँ रहिगो हीय" से "मेरे मन ही मैं रही, सखो, मान की साध" अधिक सरस है । पहले कवि के मसाले को दूसरे ने लिया ज़रूर, पर भाव को अधिक चोखा कर दिया है, किसी प्रकार की कमी नहीं पड़ने पाई । जो लोग हमारी राय से सहमत न हों, वे भी, आशा है, दूसरे कवि के वर्णन को पहले से घटकर कभी न मानेंगे। तीसरे कवि ने पहले कवि के भाव को बढ़ाकर दिखा दिया है। उसे अवगुण ढूँढ़ने पर गुण मिलते हैं । अपराध की खोज में रहकर भी अपराध न पाना साधारण बात है, पर अव- गुण की खोज में गुण का अन्वेषण मार्के का है। क्या इन कवियों को "भाव-चोर" कहना ठीक होगा ? कभी नहीं। पूर्ववर्ती कवि के भाव का कहाँ और किस प्रकार उपयोग करना होगा, इस विषय में दोनों ही परवर्ती कवि कुशल प्रतीत होते हैं; इसलिये पूर्ववर्ती कवि के भाव को अपनाने का उन्हें पूरा अधि- कार है। कम-से-कम दूसरे कवि ने पहले कवि के भाव की सौंदर्य-रक्षा अवश्य ही की है । तीसरा तो उस सौंदर्य को स्पष्ट ही सुधार