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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/८३

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भाव-सादृश्य बात रहती भी है, तो वह छिप जाती है। समालोचक का सारा परिश्रम व्यर्थ जाता है। दुःख है कि वर्तमान हिंदी-साहित्य में कभी- कभी ऐसी समालोचनाएँ निकल जाती हैं। यदि किसी कवि की कविता में भाव-सादृश्य आ जाय, तो समालोचना करते समय एकाएक उसे 'तुक्कड़' या 'चोर' न कह बैठना चाहिए, बरन् इस प्रसंग पर इमर्सन और ध्वन्यालोककार की सम्मति देखकर कुछ लिखना अधिक उपयुक्र होगा । कितने ही समालोचक ऐसे हैं, जो कवि की कविता में भाव-सादृश्य पाते ही कलम-कुल्हाड़ा लेकर उसके पीछे पड़ जाते हैं और समालोच्य कवि को गालियाँ भी दे बैठते हैं । अतएव काव्य में चोरी क्या है, इस बात को हिंदी-समालोचको को अच्छी तरह हृदयंगम कर लेनी चाहिए। सिद्धांत रूप से हम इस विषय पर उपर थोडा-सा विचार कर आए हैं, अब आगे उदाहरण देकर उन्हीं बातो को और स्पष्ट कर देना चाहते हैं। इस बात को सिद्ध करने के लिये हम केवल पाँच उदाहरण उपस्थित करते हैं। पहले तीन ऐसे है, जिनमें भाव-सादृश्य रहते हुए भी चोरी का अभियोग लगाना व्यर्थ है । यही क्यों, हम तो परवर्ती कवि को सौंदर्य-सुधारक की उपाधि देने को तैयार हैं। अंतिम दो में सौंदर्य-सुधार की कौन कहे, पूर्ववर्ती की रचना की सौंदर्य-रक्षा भी नहीं हो पाई है, अतः उनमें चोरी का अभियोग लगामा अनुचित न होगा- करत नहीं अपरधवा सपनहुँ पीय , , मान करन की बिरियाँ रहिगो हीय । (२) सपने मनभावतो करत नहीं अपराध ; मेरे मन ही मैं रही, सखी, मान की साध ।