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देव और विहारी
हर्ष का विषय है कि ब्रजभाषा के कवियों पर अब इस प्रकार की
टीकाएँ लिखी जाने लगी हैं । कविवर भूषणजी की ग्रंथावली का
उत्तम रूप से संपादन हो चुका है । अव कविवर विहारीलाल की
बारी आई है। सो श्रीयुत पद्मसिंहजी शर्मा ने उक्त कविवर की सतसई
पर संजीवन-भाष्य लिखा है । इस भाष्य का प्रथम भाग काशी से
प्रकाशित हुआ है। यह बड़ा ही उपादेय ग्रंथ है। श्रीरनाकरजी
ने भी अपना भाष्य लिखकर बड़ा उपकार किया है।
संजीवन-भाष्य की सबसे बड़ी विशेषता तुलना-मूलक समा-
लोचना है। हिंदी में कदाचित् संजीवन-भाष्यकार ने ही पहले-
पहल शृंखला-बद्ध तुलना-मूलक समालोचना लिखी है। इसके
लिये वे हिंदी-भाषी जनता के प्रशंसापात्र हैं। खड़ी बोली में
होनेवाली कविता के संबंध में उनकी राय अभिनंदनीय नहीं है-
हमारी राय में खड़ी बोली में भी उत्तम कविता हो सकती है।
हाँ, ब्रजभाषा-माधुर्य के विषय में संजीवन-भाष्यकार का मत मान-
नीय है। भाषा की मधुरता का कविता पर प्रभाव पड़ता ही है।
अतएव इस विषय पर कुछ लिखने की हमारी भी इच्छा है।
भाषा की मधुरता का कविता पर प्रभाव
कविता, चित्र एवं संगीत का घनिष्ठ संबंध है। कविता इन सब-
म प्रबल ह. दृश्य काव्य में हम इन सबका एक ही स्थान पर
समावेश पाते हैं।
चित्रकार अपने खींचे हुए चित्र से दृश्य विशेष का यथावत्
बोध करा देता है । चित्र-कौशल से चित्रित वस्तु दूर होते हुए भी
दर्शक को सलभ हो जाती है। योपियन प्रकांड रण के श्रादि
कारण, 'कैसर' यहाँ कहाँ हैं ; पर चित्रकार के कौशल से उनके
रोबदार चेहरे को हम लोग भारतवर्ष में बैठे-बैठे देख लेते हैं।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/९
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