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दो बहनें

उसने सिर धोया। गीले तौलिए से बदन पोंछ लिया। बिस्तर पर करवट बदलते बदलते थोड़ी देर बाद स्वप्नजड़ित निद्रा से वह आविष्ट हो गई।

रात को तीन बजे नींद खुली। चाँद उस समय खिड़की के सामने नहीं था। घर में अन्धकार, बाहर प्रकाश और छाया से जड़ित सुपारीवृक्षों की वीथिका। ऊर्मि के वक्षस्थल को चीरकर जैसे रुलाई उमड़ आई जो किसी प्रकार रुकना नहीं चाहती। तकिए में मुँह ढककर वह रोने लगी। प्राणों की यह रुलाई थी, भाषा में इसके लिये शब्द नहीं, अर्थ नहीं। पूछने पर यह क्या बता सकती कि कहाँ से उसके देह और मन में वेदना का यह ज्वार उद्वेल हो उठा है और बहा ले जा रहा है दिन की कर्म-सूची---रात की सुख-निद्रा को।

सबेरे जब उसकी नींद खुली तो घर में धूप आ गई थी। सबेरे के काम में फाँक पड़ गया। थकान की बात याद करके शर्मिला ने उसे क्षमा किया। किस बात के अनुताप से ऊर्मि आज अवसन्न थी? क्यों उसे लग रहा है कि उसकी हार शुरू हो गई है। दीदी से आकर बोली, "दीदी मैं तो तुम्हारा कोई काम कर नहीं सकती, कहो तो घर लौट जाऊँ।"

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