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दो बहनें

नहीं निकलता। ऊर्मि जब दुर्लभ नहीं थी तब भी बाधा-विघ्न के भीतर से शशांक कामकाज किया ही करता था, किन्तु अब वह एकदम असम्भव हो उठा।

हतभाग्य के इस निरर्थक निपोड़न से शर्मिला पहले तो बड़े दुःख के भीतर भी सुख पाती। किन्तु बाद में उसने देखा कि उसकी पीड़ा प्रबल हो उठी है, मुँह सूख गया है, आँखों के नीचे झाँई पड़ गई है। ऊर्मि खाने के समय पास नहीं बैठती इसलिये शशांक के खाने का उत्साह और परिमाण दोनों कम होते जा रहे हैं, यह उसे देखने से ही प्रकट हो जाता। कुछ दिन पहले इस घर में आनन्द की जो बाढ़ आई थी वह बिल्कुल उतर गई है, और फिर भी पहले उनकी जो सहज दिनचर्या थी वह भी नहीं रह गई है।

कभी शशांक अपने चहरे को सँवारने के विषय में उदासीन था। नाई से बाल बनवाते समय प्रायः सिर मुँड़ा ही लेता था, कंघी की ज़रूरत तो चौथाई की चौथाई तक जा पहुँचती थी। शर्मिला इसके लिये पहले बहुत वाग्वितंडा करती, बाद में हारकर उसने पतवार छोड़ दी थी। परन्तु इन दिनों ऊर्मि की ऊँची हँसी से मिली हुई संक्षिप्त आपत्ति भी निष्फल नहीं होती।

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