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दो बहनें

और भी बड़ा हो जायगा। दरिद्रता की कठोरता को यथासंभव मुलायम बनाकर वह दिन काट ले जा सकेगी, यह विश्वास उसे है। विशेष करके हाथ में अब भी जो कुछ गहने हैं, उनसे उसे ज़्यादा कष्ट नहीं होगा। यह बात भी संकोच के मन में रह रहकर उठ खड़ी होती है कि उर्मि के साथ विवाह हो जाने के बाद उसको सम्पत्ति भी तो पति की ही होगी। लेकिन केवल ज़िंदगी के दिन किसी प्रकार काट लेना हो तो काफ़ी नहीं है। इतने दिनों तक अपनी शक्ति से अपने ही हाथों पति ने जो संपत्ति जोड़ी थी, जिसके लिये शर्मिला ने अपने हृदय की अनेक प्रबल माँगों को जानबूझकर दबा रखा था, वही-- उनके सम्मिलित जीवन की मूर्तिमती आशा---मरीचिका के समान बिला गई। इसीकी गौरवहानि ने उसे मिट्टी के साथ मिला दिया। मन ही मन कहने लगी, उसी समय अगर मर जाती तो इस धिक्कार से तो बच जाती। मेरे भाग्य में जो था सो तो हुआ, लेकिन दैन्य और अपमान की यह निदारुण शून्यता एक दिन उनके मन में न जाने कैसा परिताप ला देगी। जिसके मोह में अभिभूत हो जाने से यह सब सम्भव हुआ उसे, ख़ूब सम्भव, एक दिन ऐसा भी

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