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ज्ञातव्य

से आदमी मर गया: तुमने कह दिया, पूर्वजन्म के पापों का फल है! इससे तो केवल दोष देने की अन्ध इच्छा ही साबित होती है, दोष नहीं साबित होता।

तुमने लिखा है, तुम्हारी बान्धवी मेरी कहानी के सभी पात्रों के प्रति विमुख हैं। तादाद उनकी बहुत थोड़ी है--इने-गिने तीन तो प्राणी हैं--तब भी उनमें से एक भी उनके मन-मुताबिक न उतरा! सो इसके लिये दुःख करने का कारण नहीं; क्योंकि विकासवाद को प्राकृतिक निर्वाचन-प्रणाली साहित्य और समाज में एक-जैसी नहीं होती। समाज में हम जिन्हें मित्रों में शुमार नहीं करते, साहित्य में उन्होंने समादर पाया है--इसके अनेकानेक उदाहरण मिल जाएँगे। आदर्श मानवचरित्र के पैमाने से साहित्य की श्रेष्ठता का न्याय इस देश के समालोचकवर्ग को छोड़कर दुनिया में और कहीं देखने नहीं मिलता। याद है, कभी यह बहस भी अक्सर उठा करती थी कि आदर्श सती नारी की दृष्टि से स्व० बंकिमचन्द्र के भ्रमर और सूर्यमुखी नामक नारी-चरित्रों में आधी-रत्ती के वज़न से श्रेष्ठता का तारतम्य किस विशेष बात या किस ढंग पर निर्भर है? तब मेरी उम्र थोड़ी थी, मगर इसके बावजूद भी मन में यह शिकायत उठा करती थी कि अरसिकेषु रसस्य निवेदन--इत्यादि! क्या यह बात भी समझानी होगी कि साहित्य श्रेयस्तत्व के निर्दोष साँचे में ढाली हुई गुड़ियाँ बनाने का कारखाना

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