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दो बहनें


जोड़कर जब मित्रों को निमंत्रण देता है और अप्रत्याशित अतिथियों का दल आ उपस्थित होता है तो उसे सँभालने की आकस्मिक जिम्मेदारी स्त्री की होती है। शशांक निश्चित रूप से जानता है कि दिनचर्या में कहीं कोई ग़लती रहेगी तो स्त्री के हाथों उसका सुधार अवश्य हो ही जायगा।इसीलिये ग़लती करना उसका स्वभाव बन गया है। स्त्री सस्नेह तिरस्कार के साथ कहती, 'अब मुझसे नहीं होता, तुम क्या कभी कुछ नहीं खीखोगे!' लेकिन यदि वह सीख ही जाता तो शर्मिला के दिन ग़ैरआबाद ज़मीन की तरह अनुर्वर हो जाते।

मान लीजिए शशांक दोस्तों के घर दावत खाने गया है। रात के ग्यारह बज गए या दोपहर हो आई। ब्रिज के दाँव चल रहे हैं। अचानक मित्रलोग हँस पड़े: 'उठो दोस्त, वह समन लेकर प्यादा आ गया, अब ज्यादा नहीं रुक सकते।

वही चिर-परिचित नौकर महेश है। मूछों के बाल पक गए हैं, सिर के बाल कच्चे ही हैं, पहनावे में मिरजई है, कंधे पर चारख़ाने का गमछा, और बगल में बाँस की लाठी। माईजी ने पुछवाया है कि बाबू यहाँ हैं या नहीं। माईजी को डर है कि कहीं लौटते समय अँधेरी रात में