बँगला में उनकी श्रद्धा मेघनादवध काव्य तक ही सीमित थी। अधेड़ अवस्था में शराब तथा अन्य निषिद्ध भोज्य वस्तुओं को आधुनिक चित्तोत्कर्ष का आवश्यक अंग मानते थे। आख़िरी उम्र में छोड़ दिया था। पहनावा उनका जतन से सँवारा हुआ होता। मुख-श्री सुन्दर और गम्भीर थी। देह लंबी और मज़बूत, मिज़ाज मजलिसी। याचक के आग्रह पर ना नहीं कर सकते थे। पूजा-पाठ में कोई निष्ठा नहीं था, फिर भी घर पर उसका आयोजन बड़े समारोह के साथ होता। इस समारोह के द्वारा ही वंशगत मर्यादा प्रकट होती, पूजा तो स्त्रियों और दूसरे लोगों के लिये थी। चाहते तो अनायास ही राजा की उपाधि पा सकते; उसके प्रति उदासीनता का कारण पूछने पर राजाराम हँसकर कहते, "पिता की दी हुई राजा की उपाधि तो भोग ही रहा हूँ, इसपर दूसरी उपाधि बैठाने से उसका सम्मान कम हो जायगा'। गवर्नमेण्ट हाउस की विशेष ड्योढ़ी में उनका स-सम्मान प्रवेश था। अंग्रेज अफ़सरान उनके घर पर चिर-प्रचलित जगद्धात्री पूजा के समय शैम्पेन का प्रसाद ख़ासी मात्रा में अंतरस्थ करते थे।
शर्मिला के विवाह के बाद उनके पत्नी-हीन घर में बड़ा लड़का हेमन्त और छोटी लड़की ऊर्मिमाला रह