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दो बहनें

ऊर्मि सिर झुकाकर चुप हो रहती। मन ही मन सोचती, इनसे क्या कोई भी बात छिपी नहीं रहेगी।

वह किसी भी तरह मन को बाँध न पाती। छत पर अकेली घूमने जाती। अपराह्न का प्रकाश धूसर हो आता। शहर के ऊँचे नीचे नाना आकारों के घरों की चूड़ाएँ पार करके सूर्य अस्त हो जाता,---दूर गंगा के घाट पर जहाज़ों के मस्तूल के उस ओर। नाना रङ्ग के लम्बे लम्बे मेघों की रेखा दिन की अन्तिम सीमा पर बेड़ा बाँध देती। धीरे-धीरे बेड़ा भी लुप्त हो जाता। चाँद निकल आता गिरजा-घर के शिखर के ऊपर; झुटपुटे प्रकाश में शहर सपने की भाँति हो जाता--मानों कोई अलौकिक मायापुरी हो। मन में सवाल उठता, सचमुच ही क्या जीवन इतना अविचलित कठिन है? और क्या वह इतना हो कृपण है जो न छुट्टी ही देगा और न रस ही। अचानक मन बिगड़ उठता, शरारत करने की इच्छा हो आती, जी में आता चिल्लाकर कह दे,'मैं कुछ नहीं मानती!'

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