पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१२७

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११६ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता वैष्णवन सों ले आउ । तव वा व्रजवासी ने कही, जो-मैं तो तेरी सूरत देखी नाहीं । जो-तेरी सूरत कहां है ? और भेटी भेटा तू कहा कहत है ? जौ-मैं तो कछु समझत नाहीं। सो ता समै तहां कोइ एक और हू व्रजवासी ठाढ़ो हतो । सो वाने कह्यो, जो- अरे भैया ! सूरत तो सहर है । सो नाम है । और दोइ महिना की गेल है। सो तहां तू वैष्णवन सों जाँइ कै मिलेगो तव वैष्णव तोकों भेंट उघाय देंगे। तव तू ले आइयो । तव वह ब्रजवासी मन में डरप्यो। जो- इतने दिना ते सीधा लेत हों और आज मैं इन कौ कह्यो न करूंगो तो आज पाछे सीधा देइगो नाहीं। तब मैं कहा खाउंगो । पाछे वह व्रजवासी भंडारी पास सीधा लेन गयो। सो सीधा लेकै बिलछु तलाव पर रसोई करन गयो । तव इतने में श्री- गोवर्द्धननाथजी तहां पधारे । तव वा ब्रजवासी सों श्रीगोवर्द्धन- नाथजी बोले । बोहोत हांसी करी । परि वह ब्रजवासी कछु बोल्यो नाहीं । तव श्रीगोवर्द्धननाथजी कहे, जो- अरे भैया ! आज तू बोलत क्यों नाहीं। तब वह ब्रजबासी ने श्रीगोवर्द्धन- नाथजी सों कह्यो, जो-भैया ! तेरो अधिकारी कहत है, जो- सूरत की भेट लै आउ । सो मैं तो जानत हू नाहीं। जो- सूरत कित में है ? तब श्रीगोवर्द्धननाथजीने कही, जो-अरे भैया ! तू या बात की चिंता मति करे । जो - हों तोकों सूरत दिखाउंगो । जो-मैं हूं तेरे साथ चलंगो। तब वह ब्रजवासी बोल्यो, जो-अरे भैया ! मैं तोकों नाहीं ले जाउंगो। तब श्री- गोवर्द्धननाथजी कहे, जो-तू मोको क्यों नाहीं ले जायगो ? तब वा ब्रजबासी ने कही, जो-अरे भैया! तेरे पांव छोटेसे हैं।