१२० दोसौ यावन वैष्णवन की वार्ता श्रीनाथजी सों कह्यो, जो-अरे भैया! सीधा ले आयो हूं। तव श्रीनाथजी वासों कहे, जो-अरे भैया ! मेरो सीधा ले आयो है? तब वाने कह्यो, जो - हां हां ले आयो हूं। वैष्णवन ने घृत और खांड बोहोत दीनो है । सो आपुन याकौ कहा करेंगे? तब श्रीगोवर्द्धननाथजी आप आज्ञा किये, जो-अरे भैया ! लडुवा करि डारो। तव वा ब्रजवासी ने लडुवा कीने । तव श्रीनाथजी आप आरोगे। पाछे वा ब्रजवासी सों कयो, जो- तू गाम में जाँइ के पत्र ले आउ। तो आपुन श्रीगुसांईजी के पास चले। तब वह ब्रजवासी गाम में आय के टहलुवान सों कह्यो, जो-पत्र ल्याउ । तव वा टहलुवान ने गाम के वैष्णव हते तिन सवन को बुलाये। सो सब जने आए। तिन कों महाप्रसाद दियो। और पत्र पहुंचाए । और उन सों कह्यो, जो-भैया हो ! जो-भेटिया की तो मुग्ध दसा दीसत है । और देखो महाप्रसाद और बीड़ा के पान ताजे हैं। और पत्र में हू काल्हि की मिती है । और ब्रजवासी हू कहत है, जो मैं उहां सो काल्हि कौ चल्यो हूं। तातें प्रभुन की लीला तो जानी नाही जाय । जो-कहा है ? तातें आज याकों बेगि बिदा करो तो यह जॉय । तब सब वैष्णवन मिलि के आपुस में भेट की हुंडी करि के हाथ में दीनी। और रुपैया १०) सेवकी के देन लागे । तव वाने कह्यो, जो - मैं इनकों कहा करुंगो ? तब उन वैष्णवन ने कह्यो, जो-यह तेरी सेवकी है। सो तेरे गेल के खरच के काम आवेगी। तब वा ब्रजबासीने कह्यो, जो- मेरे गेल में खरच कौ कहा काम है ? काल्हि तो मैं जाँय के भंडारी सों सीधा लेउंगो। तब वैष्णवन ने रुपैया
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