. एक ब्रजवामी, जाका श्रीगुमाईजीने परे कन्यो १२१ १०) सेवकी के दिये हत सो तिनकी हुंडी करि के भेट की हुंडी में वीडि दिये । और श्रीगुसांईजी सों विनती पत्र लिख्यो. तामें सब समाचार लिखे । जो-व्रजवासी को सेवकी के रुपेया दस देत हते, सो यह तो भोरो है। सो याने लीने नाहीं। सो पत्र में हुंड़ी करि दीनी, सो वीडी है । सो आप अपनी इच्छा में आवे तैस करोगे। तव वा ब्रजवासी पत्र तथा हुंडी लेके श्रीनाथजी के पास आयो। तव श्रीगोवर्द्धननाथजी ने वा बजवासी सों कह्यो, जो - अरे भैया ! आज आपुन बोहोत जेएँ हैं तातें चल्यो न जायगो । तातें अब यहांई सोय रहो । सवारे श्री- गुसांईजी के पास चलेंगे। तव ब्रजवासी उहाई साय रह्यो। और श्रीनाथजी तो आप मंदिर में पधारे । सो जब सवारो भयो तव श्री- नाथजी 'अप्सरा कुंड' पर पधारे। और वा ब्रजवासी को जगायो। तव वह ब्रजवासी जाग्यो । तब श्रीनाथजी ने कह्यो, जो - अरे भैया! तू वेगि अधिकारी को पत्र देके भंडारी मैं तें सीधा लेके वेगही विलछपे रसोई करि। तब वह ब्रजवासी मंदिर में गयो । तव कोऊ मनुष्य ने जाय के अधिकारी सों कह्यो, जो- अमूको व्रजवासी सूरत गयो नाहीं है । तब अधिकारी ने वा ब्रजवासी को बुलाय के कह्यो, जो-अरे! सूरत गयो नाही ? तब वह ब्रजबासी सूरत सो पत्र ल्यायो हतो सो वाके हाथ में दीनो । तब अधिकारी पत्र को देखि के चक्रत व्है रह्यो । तर मन में विचारयो. जो-यह एक दिन में सूरत के गयो होयगो ? मति कहूं झुठो कागद लिखि ल्यायो होइ । यह जानि के पत्र खोलि के देखे तो हंडी ह भीतर है। तब अधिकारी ने श्री- गुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज! अमूकी बजवासी
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