जन-भगवानदास दो भाई, गोरखा क्षत्री १२३ , खासा में ते दियो करो। सो ता दिन ते वह दाइ सीधा खासा भंडार में तें ले जातो। और विलछु पैं जाँय के रसोई करतो। सो तहां श्रीनाथजी आरोगिवे को पधारते । सो श्रीगुसांईजी श्रीनाथजी वा पैं एसी कृपा नित्य करते । हांसी खेल करते प्रसन्न रहते। सो वह ब्रजवासी श्रीगुसांईजी को ऐसो परम कृपापात्र भगवदीय हतो । तातें इनकी वार्ता कहां ताई कहिए । वार्ता ॥१०॥ अब श्रीगुसांईजी के सेवक, जन-भगवानदाम दो भाई, गोरखा क्षमी, प्रनयामी हते, तिनकी माता की भाष फहन है. भावप्रकाश-ये राजस भक्त है। लीला में 'जलतरंगिनी', 'एकतारी' इन के नाम हैं। ये दोऊ श्रीचंद्रावलीजो की अंतरंग सग्वी है । 'मुशीला ते प्रगटी है तातें उनके भावरूप हैं। सो 'जन तो जलतरंगिनी को प्रागटय है और एकतारी को प्रागटप्प 'भगवानदास' भए । या प्रसंग-१ सो वे जन और भगवानदास वे दोऊ भाई ब्रजवासी गौरवा के जन्मे । सो ये गोकुल में रहते । सो बालपन में श्री- गुसांईजी की सरनि आए हैं। सो बड़े भाई तो जन और छोटे भाई भगवानदास । सो बड़े कृपापात्र भगवदीय हते । सो वे दोई भाई गृहस्थ हते । सो उन दोऊ भाईनको विवाह उनके माता पिता ने करयो हतो । सो उन दोऊन के स्त्री हती। परि वे अपने मनमें संसार-व्यवहार में उदासीन रहते। और अपने मनमें वैराग्य राखते। संसार के विषय को तुन्छ पदार्थ जानते । सा उन दोऊ भाईन को मन एक ही हतो। और परस्पर वोहोत
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