१२८ राग. धनामी दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता दिन आयो । तव ताही समै एक वधाई गाई । सो पद श्रीवल्लभ गृह होत बधाई अनुदिन मंगल चार । घर-घर आनंद महा महोच्छ्व होत वेद झंकार ।। देत आसीस सकल पुरवासी वरखत कुसुम अपार । मागध सूत बंदित बंदीजन जै जै सब्द उच्चार ॥ देति असीस सकल ब्रज सुंदरि गावत गीत उच्चार । श्रीविठ्ठल तुम चिरजियो भक्तन प्रान आधार ॥ नृत्यत आवत हरिजस गावत पुलकित प्रेम आधार । 'जन-भगवान' जाय बलिहारी जै जै दीन दयाल ॥ यह वधाई को पद जन-भगवानदास ने गायो। सो सुनि कै श्रीगुसांईजी बोहोत प्रसन्न भए। ता पाछे संध्या समै एक पद और गायो । सो पद - जय श्रीवल्लभजू के नंदन श्रीवल्लभचरन रज पावन । जुग पद कमल विराजमान अति महिमा सदा बोहोत सुख पाइन । सेवा करों उभे कर दोऊ त्रिविध ताप नसावन । 'जन-भगवान' जाय बलिहारी कृपा सबै जन पावन । यह पद जन-भगवानदास ने गायो। सो सुनि कै श्रीगुसांईजी बोहोत प्रसन्न भए। और श्रीमुख तें कहे, जो-इन दोऊ भाईन को कैसो सरल स्वभाव है ? सो काहू सों अन्यतर भाव नाहीं। सो वे जन-भगवानदास श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपापात्र भगवदीय है । तातें इनकी वार्ता को पार नाही, सो कहां ताई कहिए ? वार्ता ॥१०७॥ राग : कान्हरो
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