पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१४८

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कल्यान भट्ट, खंभालिया के १३५ सो क्षमा ही करे । तिन को दोऊ हाथ जोरि कै मधुरे वचन सों वोले, क्षमा राखे । जो-भगवदीय वैष्णव सों सांचो वोले । और श्रीप्रभुजी सों चित विषे निर्मल बुद्धि राखे । और सदा सर्वदा उपकार ही करे। और श्रीप्रभुजी के ऊपर तें तथा भग- वदीय वैष्णव के ऊपर ते मन डिगावे नाहों । जो-इंद्रियजीत रहे । और अपने मन को मतो श्रीप्रभुजी के अर्थ नाही आवे । और आप महाप्रसाद मात्र को अंगीकार करे । और अपने अर्थ उद्यम नाहीं करनो । और महाप्रसाद को न्यून ले। और वोहोत महाप्रसाद लेइ तो निंद्रा आवे; तो भगवद भजन न होंई आवें । तातें उनमान को महाप्रसाद लेनो। और रोगादिक होइ तव श्रीठाकुरजी आपकी सेवा में अंतराय होई । तातें अपने मन को जीति कै रहे । मन वस होई तव श्रीप्रभुजी के भजन में स्थिर होइ रहे । मन वस होइ तो सदा सर्वदा कार्य में रहे । सव इंद्रिय कों जीते । विषय में लगावे नाहीं । और कहे, जो - हमतो श्रीप्रभुजी आपके दास हैं। सरन हैं। सो ऐसें मन कों समुझावतो रहे। और जहां वहिर्मुख लोग चर्चा करें तहां मौन होइ कै रहे । और श्रीप्रभुजी की सेवा में सदा सावधान रहे । और असावधान नाहीं होनो । और श्रीप्रभुजी की, भगवदीय वैष्णव को रहस्य-वार्ता प्रगट नाहीं करनी। और धीरज कव हू नाहीं छोरे । भूख तें प्यास तें निंद्रा ते सीत ते उष्ण तें क्रोध लोभ तें। इतने दोप रूप हैं। सो इनके वस नाहीं होइ। तिन कों जीति के रहनो। और अभिमान नाहीं करे । सो सव भगवदीय वैष्णवन को आदर करत रहे । जो-श्रीप्रभुजी के स्वरूप पर और श्रीप्रभुजी की लीला हे ता रूप में अनेक