माचेटा ब्राह्मन, जिननें श्रीगुसांईजी की सेवा कीनी १४५ कों आज्ञा करी; जो-आज सेनभोग के दूध में पूरा थोरो क्यों करयो ? तब भंडारी ने विनती करी, जो-महाराज! ऊजरो बूरा थोरो ही रह्यो । सो पैसा चारि भरि घटती हतो। सो अव प्रातःकाल मँगाय लेउंगो। तब श्रीगुसांईजी भंडारी सों खीझि के कहे, जो-आज पाछे पैसा भरिह घटती मति करियो। तब भंडारी ने विनती कर कै कह्यो, जो - महाराज ! आज पाछे नेग में घटती कब हू न करूंगो । सो या प्रकार वा ब्राह्मनी के ऊपर श्रीनवनीतप्रियजी वोहोत प्रसन्न रहते । भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो - सेवा भय-प्रीति संयुक्त करनी । और गुरून पै दोष बुद्धि सर्वथा न करनी । सो वह ब्राह्मनी श्रीगुसांईजी की ऐसी परम कृपापात्र भगवदीय ही । तातें इनकी वार्ता को पार नाहीं। सो कहां तांई कहिए। वार्ता ॥११॥ / अब श्रीगुसांईजी के सेवक मा-बेटा, प्रादन, गुनरात के, निनने श्रीगुसाई. जी की सेवा करी, तिनकी वार्ता की भाव कहत हैं भावप्रकाश-ये सात्विक भक्त । लीला में इन के नाम 'प्यारी', और 'दुलारी' हैं । सो प्यारी तो इहां मा भई और दुलारी वेटा भयो। ये दोऊ मैना ते प्रगटी हैं । तातें उनके भावरूप हैं । सो ये दोऊ मा चेटा ब्राह्मन है । सो गुजरात में एक गाम में रहत हुते। सो एक समै श्रीगुसांईजी द्वारिकाजी पधारत हुते । सो मारग में इन मा बेटा के गाममें डेरा किये । तब गाम के वैष्णव सव दरसन को आये । उनमें ये मा- बेटा हू श्रीगुसांईजी के दरसन को आए । सो दरसन करि थकित व्है रहे । साक्षात् कोटि कंदर्प लावन्य पुरुषोत्तम के दरसन भए । तब इन श्रीगुसांईजी मों विनती कीनी, जो - महाराज ! कृपा करि हम को सरनि लीजिये। तब श्रीगुसां- ईजी आप दोऊन को नाम सुनाये । पाछे वैष्णवन कही, जो • तुम निवेदन की विनती और हु करो। तब दोऊन श्रीगुसांईजी सो निवेदन की विनती किये । १५
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