१४४ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता सो वा ब्राह्मनी कौ हाथ पकरि के ठाढ़ी किये । और कह्यो, जो- तेरो अपराध तो थोरो हतो और दंड तोकों वोहोत भयो। परि तू धन्य है । सो तेनें ऐसो धीरज धरयो । तव वा ब्राह्मनीने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो - महाराज । मोसों अपराध तो वोहोत ही परयो हतो, जो- सगरी सामग्री छई गई। प्रभुन कों ढील भई । या अपराध ते मोकों तीन्यो लोक में कहूं ठौर न हती । सो आप तो परम दयाल हो सो थोरे ही में मेरो अपराध निवृत्त कियो । तव ये वचन वा ब्राह्मनी के सुनि कै आप वोहोत प्रसन्न भए । भावप्रकाश--या वार्ता में यह जताए, जो - जीव को अपने रंचक दोप कों हू बोहोत बड़ो करि जाननो। तो दीनता होई । और शिक्षा की अनुग्रह करि जाननो । यह कहे। पाठे श्रीगुसांईजी अपनो चरनामृत दियो। तव वा ब्राह्मनी कों आज्ञा करी, जो-बेगिन्हाय अपनी सेवा में जाय लगो। सेवा सावधानी सों दोऊ वार करनो। यह श्रीमुख के वचन सुनि कै वह ब्राह्मनी बोहोत ही प्रसन्न भई। ता दिन तें वह ब्राह्मनी भय संयुक्त अत्यंत प्रीति सों सेवा करती। सो कछुक दिन में श्रीनवनीतप्रियजी सानुभावता जतावन लागे । सो एक दिन सेन भोग के दूध में बूरा थोरो परयो हतो। तव वा ब्राह्मनी सों श्रीनवनीतप्रियजी कहें, जो - आज सेन भोग के दूध में बूरा थोरो हतो। सो यह आज्ञा श्रीनवनीत- प्रियजी की सुनि कै ताही समै अर्द्धरात्रि को श्रीगुसांईजी के पास जाँइ के विनती करी, जो-महाराज! आज सेन-भोग के दूध में बूरा थोरो हतो । श्रीनवनीतप्रियजी की आज्ञा भई है। सो भंडारी को दोष है। तब श्रीगुसांईजी ताही समै भंडारी
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