पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१६२

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मा-वेटा ब्राह्मन, जिननें श्रीगुसांईजी की सेवा कीनी १४७ गुसांईजी सों विनती कीनी, जो- महाराज ! आज्ञा होइ तो श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन करि कै व्रजयात्रा करि ओवें । तब श्रीगुसांईजी ने आज्ञा दीनी, जो-आछो, करि आऊ ! तव वे मा बेटा दोऊ श्रीगुसांईजी कों दंडवत् करि के चले। सो श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन किये । पाछे संपूरन ब्रजयात्रा करि कै श्रीगोकुल आए । श्रीगुसांईजी के दरसन किये। तव श्रीगुसांईजी ने पूछी, जो- ब्रजयात्रा करि आए ? तब उन विनती करी, जो- राज की कृपा ते श्रीमुख निरखि कै ब्रज- यात्रा करि आए। पाछे उन ब्राह्मन वैष्णवन ने और हू विनती करी, जो - कृपानाथ ! अव कहा आज्ञा है ? तव श्रीगुसांईजी ने कही, जो - श्रीठाकुरजी की सेवा करो। तव इन ब्राह्मन वैष्णव ने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो-कृपानाथ! हमारो ऐसो मनोरथ है, जो - आप की सेवा करें । तव श्रीगुसांईजी ने कही, जो- हमारी सेवा कौन भांति करोगे ? तब इन ब्राह्मन वैष्णव ने कही, जो-राज ! जा भांति श्रीठाकुरजी की सेवा करें ता भांति हम करेंगे । सिंघासन, खंडपाट सव श्री- ठाकुरजी के से राखेंगे। और पट्टा विछाय के झारी भरि धरें, भोग समर्पे, आप आरोगो। हम तो वाहिर बैठेंगे । समय होय तव भोग सराय आचमन मुखवस्त्र कराऊं। या भांति कृपा करो। तो हम सेवा करें । तव श्रीगुसांईजी आप तो परम दयाल है । सो आप को नाम 'भक्तेच्छा पूरकाय नमः' है। सो आपने कही, जो- काहू के आगें यह (सेवा-प्रकार) प्रगट न होंय तो हम तेरे घर पधारेंगे, प्रगट होइ कै आरोगेंगे। और जो-कहूँ कोई जानेगो तो हम एक छिन हू न विराजेंगे।