पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१६३

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१४८ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता भावप्रकाश-काहे तें, जो- यह एकांतिक सेवा को प्रकार है । सो केवल मावरूप है । तातें प्रगट कियो नहीं जाँई । तब उन वैष्णवन कही, जो- आज्ञा। पाछे सेवा तो कछ पधराई नाहीं । श्रीगुसांईजी को स्वरूप हृदय में राखे । ता पाछे वे दोऊ मा-बेटा श्रीगुसांईजी सों विदा होंइ के अपने घर राजनगर आए। तब मा ने बेटा सों पूछ्यो, जो-तेरी सगाई व्याह करे। वह आवे तो तोकों सेवा में सहायक होइगी। तब बेटा को मन तो सेवा में हतो। सो बेटा ने कही, जो- द्रव्य अलौकिक सेवा में लगे तो आछो । जो- मेरे तो विवाह करनो नाहीं। पाछे वा डोकरी ने अनेक भांति सों वेटा को मन देख्यो । परंतु बेटा को मन तो सेवा में है । तातें व्याह कियो नाहीं । पाठे इन वैष्णवन में दूसरो नयो घर करवायो। ताके भीतर एकांत में मंदिर करवायो। सो सव व्योंत निज मंदिर, तिवारी, सिज्या मंदिर, भोजन घर, चोक, डोल-तिवारी जलघरा, खासा, सेवकी, सब ब्योंत ज्यों को त्यों करवायो। और अपने रहिवे को न्यारो करवायो। ऐसो करवायो जो- कोऊ न जानें, जो-मंदिर है। पाछे सिंघासन चंदौवा पिछ्वाई सिज्या सब साज बड़ो करवायो। और भीतर कुआँ । सब व्योंत भीतर । बाहिर प्रगट लेस नहीं। और मंदिर को जल तथा पोतना सब सेवा अपरस में करते। पाछे सब सामग्री सिद्ध करि के भोजन घर में पट्टा बिछाय के भोग सब विधि पूर्वक साजि कै झारी भरिकै हाथ जोरिकै जैसें दरसन किये हते तैसे स्वरूप को ध्यान करि बिनती करी, जो-कृपानाथ! श्रीठाकुरजी तो श्रीमहाप्रभुजी की कानि