१५८ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता फेरि तानसेन अमल-पानी लेन लागे। तव सुंदर गावन लागे। सो श्रीगोवर्द्धननाथजी मुसकाये । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी के मुसकान के दरसन तानसेन कों भए। भावप्रकाश--सो या वार्ता में बह जताए, जो - पुष्टिमार्ग में जा भांति श्रीगोवर्द्धननाथजी प्रसन्न रहे सोई कर्तव्य है । पुष्टिमार्गीय को सोई धर्म है । सो तानसेन श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हते । तातें इनकी वार्ता कहां ताई कहिए । वार्ता ॥११३॥ अब श्रीगुसांईजी को सेवक एक दलाल बनिया, राजनगर कौ, तिनकी वार्ता को भाष कहत है- भावप्रकाश-ये सात्विक भक्त हैं । लीला में इनको नाम 'स्नेहलता' है। ये मनसुखा गोप की भतीजी है । तातें उनके भावरूप हैं । सो यह राजनगर में एक द्रव्यपात्र वनिया के जन्म्यो । सो वह बनिया दलाली करत हतो। पाछे यह लरिका वरस वीस को भयो तव याको व्याह भयो । फेर केतेक दिन पाछे याके माता-पिता मरे । तव यह दलाली करन लाग्यो । सो याके गांठि मे निन्यानवे हजार रुपैया हते । परि यह बनिया लोभी हतो । सो कहतो, जो - लाख रुपैया होइ तो आछो । तातें द्रव्य को संग्रह करे । खानपान में हु संकोच करे । सो वारह आना नित्य कमावे । सो आठ आना सो जमा करे । और बाकी चार आना में निर्वाह करे । ऐसें करत केतेक दिन पाछे श्रीगुसांईजी राजनगर असारुवा में भाईला कोठारी के इहां पधारे । सो ता समै यह बनिया भाईला कोठारी के पास कछु काम को आयो हतो । सो इन श्रीगुसांईजी की दरसन पायो। तब भाईला कोठारी को या बनियाने पूछयो, जो- यह कौन हैं ? कहां रहत है ? और इन की नाम कहा है ? तव भाइला कोठारीने कह्यो, जो ये श्रीगुसांईजी साक्षात् ईश्वर हैं। श्रीगोकुलाधिपति हैं। इनको नाम श्रीविठ्ठलनाथजी है । और हम सब इनके सेवक हैं। तब यह बनिया कह्यो, जो- हम हू को इनके सेवक करावो तो आछौ । हम हू इनके सेवक होइंगे। तब भाईला कोठारी ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज ! यह वनिया सेवक होने की कहत हैं। तब श्रीगुसांईजी आप या बनिया की ओर मुसिक्याइ कै देखे । तब या बनियाने बिनती कीनी, जो - महाराज ! कृपा करि अपनो सेवक कीजिए तो
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