तानसेन गवैया १५७ गोविंदस्वामी सों आज्ञा किये, जो- गोविंददास ! इन कों कीर्तन सिखइयो। तव तानसेन कछक दिन गोविंदस्वामी के पास रहे। मार्ग की प्रणाली अनुसार कीर्तन सीखे। ता पाछे श्रीगुसांईजी की आज्ञा पाइ श्रीनाथजी के सन्मुख कीर्तन करन लागे । वार्ता प्रसंग-२ सो तानसेन श्रीनाथजी के सन्निधान कीर्तन करते । सो श्रीनाथजी तानसेन के कीर्तन सुनि वोहोत प्रसन्न होते । सो तानसेन अमल-पानी करत हुते । सो उनके मुख में सों दुगंध आवती । सो एक समै तानसेन श्रीनाथजी के सन्निधान कीर्तन करत हते। तब एक वैष्णव ने उनको टोके। और कह्यो, जो- तुम अमल-पानी मति करो। तुम्हारे मुख सों दुगंध आवत हैं । सो श्रीनाथजी को कैसें सुहात होइगो ? तब तानसेन ने दूसरे दिन अमल-पानी छोरि दियो। पाछे तानसेन राजभोग समै कीर्तन करन लागें। तव कीर्तन आछे होइ नाहीं । तव श्रीगुसांईजी तहां श्रीगोवर्द्धननाथजी को दर्पन दिखावत हते । तव श्रीनाथजी श्रीगुसांईजी सों आज्ञा किये, जो-आज कीर्तन फीके लगत हैं। सो तानसेन आछी भांति गावत नाहीं है। तातें उन सों कहो, जो - आछी भांति कीर्तन गावे । तब श्री- गुसांईजी तानसेन को कहे, जो- आज ऐसें फीके क्यों गावत हो? तव तानसेन ने कही, जो-महाराज! अमल-पानी कियो नाहीं । एक वैष्णव मोसों कहे, जो - श्रीनाथजी को दुर्गंध आवत है, तातें तुम अमल-पानी मति करो । तातें महाराज ऐसे होत है। तव श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - तुम पहिले जैसे करत हुते तैसें करो । तामें श्रीगोवर्द्धननाथजी प्रसन्न हैं। तव तें
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