सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६० दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता होइगो। तेरोकल्यान होइगो। तव वाने कही, जो-राज ! यामें तें कोड़ी खरच होंइ नाहीं । ऐसी सेवा कृपा करि वताईए । तव श्रीगुसांईजी आप कहे, जो-तू मानसी सेवा करि । तामें तेरो कछु खरच न होयगो । तब वाने श्रीगुसांईजी सों कही, जो- राज ! मोकों मानसी सेवा को प्रकार समझाइए । ता भांति हों सेवा करों । तव श्रीगुसांईजी वाकों नित्य की तथा ऊत्सव की रीति सब बताय दीनी । सो ताही रीति सों वह सेवा करन लाग्यो। सो एकाग्र चित्त सों श्रीठाकुरजी को हृदय में पधराय के भक्तिभाव सों सेवा करे । सो ऐसे करत कोई उत्सव आयो। सो वह खीरि करन लाग्यो । तव खीरि सिद्ध भई । तव वामें बूरा पधराये। सो बूरा वोहोत परयो । सो पाछे कादिवे लग्यो। तब ताही समै श्रीठाकुरजी ने आय के हाथ पकरि कै कह्यो, जो-यामें तेरी गांठि को कहा खरच होत है ? जो-तू पालो काढ़त है । तब तो यह दलाल मन में विचारयो, जो-अव तो यह सब द्रव्य श्रीठाकुरजी के विनियोग में लगावनो। पाछे वाने जाय कै श्रीगुसांईजी सों विनती करि कै श्रीठाकुरजी पधराये । तब वह सब द्रव्य श्रीठाकुरजी के विनियोग में आयो। भावप्रकाश-यामें यह सिद्धांत जतायो, जो - पुष्टिमार्ग में ठाकुर जीव को जैसो स्वभाव होत हैं ता भांति वाकों अंगीकार करत हैं । सो ऐसें प्रभु कारुनिक भक्तवत्सल हैं। तातें जा प्रकार बनि आवें ता प्रकार वैष्णव को भगवद्- सेवा करनी । सेवा ते विमुख रहनो नाहीं। सो वह दलाल श्रीगुसांईजी को ऐसो कृपापात्र भगवदीय हतो । तातें इनकी वार्ता कहां ताई कहिए । वार्ता ॥११४॥