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पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१८९

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१७२ दोमो वावन वैष्णवन की वार्ता गुसांईजी आप कृपा करि ताराचंदभाई को श्रीनवनीतप्रियजी के सन्मुख ब्रह्मसंबंध करवायो। पाछे राजभोग के दरसन के किवाड़ खुले । सो ताराचंदभाई श्रीनवनीतप्रियजी के दरसन करि कै बोहोत ही प्रसन्न भए । ता पाछे श्रीगुसांईजी आपु श्रीनवनीतप्रियजी को राजभोग आर्ति करि अनोसर कराय आपु अपनी बैठक में पधारे । तव सव वैष्णव मिलि के आए। सो श्रीगुसांईजी आप सों दंडवत् करि कै वैठे । पाछे श्रीगु- सांईजी आप सब वैष्णवन को समाधान कियो । ता पाछे ताराचंदभाई हू आए । सो श्रीगुसांईजी आप को साष्टांग दंडवत् करि कै बैठे । तव श्रीगुसांईजी आप सब वैष्णवन कों विदा करि कै आप भीतर भोजन करिवे कों पधारे । सो भोजन करि कै बीरा आरोगि कै अपनी वैठक में गादी तकियान पर विराजे । तव श्रीगुसांईजी ताराचंद भाई को आज्ञा किये, जो- उठो ! महाप्रसाद लेहु । तव ताराचंद भाईने महाप्रसाद लियो । पाछे ताराचंद भाई ने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो- महाराज ! कछुक दिन राज की टहल करिवे को मनोरथ है। तब श्रीगुसांईजी ताराचंद भाई को अपनी खवासी में राखे । वार्ता प्रसग-२ सो एक दिन ताराचंद भाई को मन कछुक बात मैं चल्यो। तब ताराचंद भाई को श्रीगुसांईजी आप ने सिक्षा कीनी, जो- या बात में मन चलाइए नाहीं। ता पाछे श्रीगुसांईजी आपु सों ताराचद भाईने विनती कीनी, जो - महाराजाधिराज! कौन ने राज के आगे आय कै मिथ्या कह्यो है ! सो हम सो कहो । जो-मैं सुनों। ता पाछे श्रीगुसांईजी आप ने कह्यो,