१७३ ताराचंदभाई, गुजरात के जो-कहा रे! कहा में जानत नाहीं? जो-में काहू को कह्यो सुनों ? मैं तिहारी रक्षा के लिए कहत हों। तव ताराचंदभाई श्रीगुसांईजी आपके श्रीमुख के वचन सुनि कै सिक्षा हू मानत भए । पाछे ताराचंद भाई ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो-महाराज ! मेरो मन स्थिर होंई सो उपाय कृपा करि आप जनाइए । तब श्रीगुसांईजी ताराचंद भाई सों आज्ञा किये, जो- तुम 'सर्वोत्तम स्तोत्र' कौ पाठ नित्य करियो । तातें तुम्हारो सब कार्य सिद्ध होइगो। सो यह सुनि कै ताराचंद भाई बोहोत प्रसन्न भए । पाछे वा दिन ते नित्य 'सर्वोत्तम स्तोत्र' को पाठ करन लागे। तातें वैष्णव कों बड़ेन को वचन मान्यो चाहिए। -या वार्ता में यह जतायो, जो - वैष्णव को गुरुन के आगे झुठ बोलनो नाहीं । काह बात को दुराव करनो नाहीं । नाँतरु अपराध होई । बड़ेन की सिक्षा को गुन करि कै माननो । और सर्वोत्तम स्तोत्र को स्वरूप जताए, जो - मन कैसो हू चंचल होई परि श्रद्धापूर्वक सुद्ध बुद्धि सों सर्वोत्तम स्तोत्र को पाठ करें तो बाको मन स्थिर होई । और उत्तम फल की प्राप्ति होई । सो वह ताराचंद भाई श्रीगुसांईजी आप के सेवक ऐसे कृपापात्र भगवदीय है। जिन के ऊपर श्रीगुसांईजी आपु सदाही प्रसन्न रहते । तातें उनकी वार्ता को पार नाहीं । सो कहां ताई कहिए। वार्ता ॥११७॥ भावप्रकाश- -- अब श्रीगुमाईजी को सेवा एक मलेच्छ हतो, महावन में रहती, तिनकी वार्ता को भाष कहत है- भावप्रकाश-ये तामस भक्त हैं । लीला में इन को नाम 'गोहनी है। ये श्रीठाकुरजी के पाठे पाछे फिरति हैं । ऐसी स्वरूपामक्त है । ये भामा की मसी माधुरी हैं, उन तें प्रगी है. ताते उन के भावरूप है । सो एक दिन 'गोहनी' ठाकुर के पायें पार्छ यन में गई, तहां ठाकुर ने इन देखी । सो ठाकुर गोहनी सों कहे, जो- गोहनी ! तू श्रीदामा को वेगि
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