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पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१९९

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१८४ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता मनुष्यन कह्यो, जो - यह श्रीगुसांईजी हैं । तव वा सन्यासी ने कह्यो, जो- ये कैसे गुसांई हैं ? इन के तो संग्रह वोहोत है । सब दान करि देऊ। सो यह वात श्रीगुसांईजी आप सुने । तव श्रीगुसांईजी वा सन्यासी के देखत ही जो कछ वैभव हतो सो सब ब्राह्मन को बुलाई के दे दियो। कछु गंगाजी में डार दियो। पाछे वा सन्यासी सों श्रीगुसांईजी आप कहे, जो - तू सन्यासी है, तातें ये कोपीन तूंबा अपने दे घालि। तव वह सन्यासी ने श्री- गुसांईजी सों कह्यो, जो - मैं अपने वस्त्र तूंवा दे घालूं तो मोकों फेरि कहां तें मिलें ? तव श्रीगुसांईजी आप कहे, जो - हमने तो इतनो सामान ब्राह्मनन को दान कियो और तू सन्यासी होई कोपिन हू नाहीं दे सकत ? सो कोपिन में इतनी ममता है! तोकों इश्वर को भरोसा हू नाही ? तातें तू सन्यासी कैसो ? तव वह सन्यासी लजित व्है रह्यो । इतने ही गौड़ देस तें नारायन- दास कौ पठायो सगरो वैभव पालकी, घोरा, डेरा आदि ले के मनुष्य सब मनिकनिका घाट पर आए। तब उन मनुष्यन नारा- यनदास की ओर ते बिनती कीनी, जो-महाराज! बेगि गौड़ देस पधारिए। तब श्रीगुसांईजी कौ वैभव फेरि पहिले जेसो व्है रह्यो। सोदेखि के वह सन्यासी श्रीगुसांईजी सों कह्यो, जो-महाराज! तुम ईश्वर हो ! तुम्हारे चरनन सों लछिमी लागी है। पाठे श्रीगुसांईजी सों वह सन्यासी बोहोत ही विनती करि के कह्यो, जो- महाराज ! तुम साँचे गुसांईजी हो । तातें अब आप मो ऊपर कृपा करि कै मोकों अपनो सेवक करि कै कृतार्थ करो। तब श्रीगुसांईजी वह सन्यासी ऊपर परम अनुग्रह करि के आज्ञा किये, जो-तुम स्नान करो, जटान को मुंडाय के आओ। तब