पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२००

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एक सन्यासी, कासी को हम तुम को सेवक करें । तव वह संन्यासी जटा मुंडाइ, स्नान करि कै श्रीगुसांईजी पास आइ हाथ जोरि कै ठाढ़ो भयो । तब श्रीगुसांईजी कृपा करि वाको नाम सुनाइ के वैष्णव करि वा सन्यासी को कृतार्थ किये। तव वह सन्यासी नाम पाय वोहोत प्रसन्न भयो । पाछे श्रीगुसांईजी आप भोजन किये। तब वह सन्यासी वैष्णव भयो हुतो ताको बुलवाई कै श्रीगुसांईजी अपने श्रीहस्त सों वाकों महाप्रसाद की पातरि कृपा करि कै धरी। सो महाप्रसाद वह लेन लाग्यो। पाठें श्रीगुसांईजी वीरी आ- रोगि कै विश्राम किये। पाछे विश्राम करि उठि कै वा सन्यासी वैष्णव सों कहे, जो-अव तुम ब्रजयात्रा जाय कै करो। सो वह वैष्णव कासीतें श्रीब्रजयात्रा को चल्यो। सो कछूक दिन में श्री- मथुराजी आय पहोंच्यो । पाठें वह वैष्णव बनयात्रा परिक्रमा कों विश्राम घाट स्नान करि कै निकरयो । सो ब्रज की सोभा देखि अपने मन में वोहोत ही प्रसन्न भयो। पाछे परिक्रमा - यात्रा करत श्रीगिरिराज में आय परवत ऊपर श्रीगोवर्द्धननाथजी के राजभोग की आरति के दरसन करि वह वैष्णव अत्यंत प्रसन्न भयो। पाठे श्रीगिरिराज तें परिक्रमा -यात्रा करत श्रीगोकुल आय श्रीगोकुल की सोभा देखि दरसन करि कै वोहोत ही प्रसन्न अपने मन में भयो । ता पाछे वह वैष्णव श्रीगोकुल ते फेरि कासी को चल्यो । सो कछुक दिन में कासी में आइ कै श्रीगु- सांईजी कों दंडवत् कियो । तव श्रीगुसांईजी ने वा वैष्णव सों पूल्यो, जो-वैष्णव ! तुम ब्रज होंइ आए ? तब इन श्रीगु- सांईजी को साष्टांग दंडवत् करि विनती करी, जो - महाराज! आपके प्रताप सों मैं ब्रज होंड आयो हो । सो ब्रज की बात २४